________________ 62 पप्पका के मन में इस प्रकार का यह आन्तरिक विचार उत्पन्न हग्रा--'मैं वाराणसी नगरी का रहने वाला, अत्यन्त उच्चकुल में उत्पन्न सोमिल ब्रह्मर्षि हूँ। मैंने गृहस्थाश्रम में रहते हुए व्रत पालन किए हैं, यावत् यूप-यज्ञस्तम्भ गड़वाए। इसके बाद मैंने वाराणसी नगरी के बाहर बहुत से आम के बगीचे यावत् फूलों के बगीचे लगवाए। तत्पश्चात् बहुत से लोहे के कड़ाहे, कुडछी प्रादि घड़वाकर यावत् ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपकर और मित्रों आदि यावत् ज्येष्ठ पुत्र से सम्मति लेकर लोहे की कड़ाहियां आदि लेकर मुंडित हो प्रव्रजित हुआ। प्रवजित होने पर षष्ठ-षष्ठभक्त (बेले-बेले) तपःकर्म अंगीकार करके दिक्चक्रवाल साधना करता हुया विचरण कर रहा हूँ। लेकिन अब मुझे उचित है कि कल सूर्योदय होते ही बहुत से दृष्ट-भाषित (पूर्व में दृष्ट और भाषित ) पूर्व संगतिक (पूर्वकाल के साथी) और पर्यायसंगतिक (तापस अवस्था के साथी) तापसों से पूछकर और आश्रमसंश्रित (आश्रम में रहने वाले) अनेक शत जनों को वचन आदि से संतुष्ट कर और उनसे अनुमति लेकर वल्कल वस्त्र पहनकर, कावड़ की छबड़ी में अपने भाण्डोपकरणों को लेकर तथा काष्ठमुद्रा से मुख को बांधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा में महाप्रस्थान (मरण के लिए गमन) करूं / ' सोमिल ने इस प्रकार से विचार किया। इस प्रकार विचार करने के पश्चात् कल (आगामी दिन) यावत् सूर्य के प्रकाशित होने पर अपने विचार-निश्चय के अनुसार उन्होंने सभी दृष्ट, भाषित, पूर्वसंगतिक और तापस पर्याय के साथियों आदि से पूछकर तथा प्राश्रमस्थ अनेक शत-प्राणियों को संतुष्ट कर अंत में काष्ठमुद्रा से मुख को बाँधा / मुख को बाँधकर इस प्रकार का अभिग्रह (प्रतिज्ञा) लिया--जहां कहीं भी चाहे वह जल हो या स्थल हो, दुर्ग (दुर्गम स्थान) हो अथवा नीचा प्रदेश हो, पर्वत हो अथवा विषम भूमि हो, गड्ढा हो या गुफा हो, इन सब में से जहाँ कहीं भी प्रस्खलित होऊँ या गिर जाऊं वहाँ से मुझे उठना नहीं कल्पता है अर्थात् मैं वहां से नहीं उठूगा। ऐसा विचार करके यह अभिग्रह ग्रहण कर लिया / तत्पश्चात् उत्तराभिमुख होकर महाप्रस्थान के लिए प्रस्थित वह सोमिल ब्रह्मर्षि उत्तर दिशा की ओर गमन करते हुए अपराह्न काल (दिन के तीसरे प्रहर) में जहां सुन्दर अशोक वृक्ष था, वहाँ पाए / उस अशोक वृक्ष के नीचे अपना काबड़ रखा / अनन्तर वेदिका (बैठने की जगह) साफ की, उसे लीप-पोत कर स्वच्छ किया, फिर डाभ सहित कलश को हाथ में लेकर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए और शिवराजर्षि के समान उस गंगा महानदी में स्नान आदि कृत्य कर वहाँ से बाहर पाए / जहाँ वह उत्तम अशोक वृक्ष था वहाँ आकर डाभ, कुश एवं वालुका से वेदी की रचना की। फिर शर और अरणि बनाई, शर व अरणि काष्ठ को घिसकर-रगड़कर अग्नि पैदा की इत्यादि पूर्व में कही गई विधि के अनुसार कार्य करके बलिवैश्वदेव-अग्नियज्ञ करके काष्ठमुद्रा से मुख को बाँधकर मौन होकर बैठ गये। देव द्वारा सोमिल को प्रतिबोध 19. तए गं तस्स सोमिलमाहरिसिस्स पुम्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतियं पाउम्भूए / सए णं से देवे सोभिलमाहणं एवं क्यासी-हं भो सोमिलमाहणा, पव्वइया ! दुप्पटवाइयं ते।' तए णं से सोमिले तस्स देवस्स दोच्चं पि तच्चं पि एयमट्ठनो आढाइ, नो परिजाणइ, जाव तुसिणीए संचिट्ठइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org