________________ [कल्पिका आदि बनाई। गंगा में स्नान किया। अग्निहवन किया यावत् काष्ठमुद्रा से मुख बांधकर मौन बैठ गए। बाद में मध्यरात्रि के समय मैं तुम्हारे समीप आया और तुम्हें प्रतिबोधित किया--'हे सोमिल ! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है / ' किन्तु तुमने उस पर ध्यान नहीं दिया और मौन ही रहे / इस प्रकार मैंने तुम्हें चार दिन तक समझाया पर तुमने विचार नहीं किया। इसके बाद आज पांचवें दिवस चौथे प्रहर में इस उदुम्बर वृक्ष के नीचे आकर तुमने अपना कावड़ रखा। बैठने के स्थान को साफ किया, लीप-पोतकर स्वच्छ किया। अग्नि में हवन किया और काष्ठमुद्रा से अपना मुख बांधकर तुम मौन होकर बैठ गए / इस प्रकार से हे देवानुप्रिय ! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है / सोमिल द्वारा पुनः श्रावकधर्मग्रहण 24. तए णं से सोमिले तं देवं एवं क्यासी-"कहं णं देवाणुप्पिया ! मम सुप्पन्धइयं ?" तए णं से देवे सोमिलं एवं क्यासी-"जह णं तुम देवाणुप्पिया! इयाणि पुवपडिवनाई पञ्च अणुव्वयाई सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरसि, तो गं तुजन इयाणि सुपब्वइयं भवेज्जा।" तए णं से देवे सोमिलं वन्दइ नमसइ, 2 ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए / तए णं सोमिले माहणरिसी तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे पुन्यपडियन्नाई पञ्च अणुव्वयाई सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / [24] यह सब सुनकर सोमिल ने देव से कहा-'अब आप ही बताइए कि मैं कैसे सुप्रवजित बनू-मेरी प्रव्रज्या सुप्रव्रज्या कैसे हो ?' इसके उत्तर में देव ने सोमिल ब्राह्मण से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! यदि तुम पूर्व में ग्रहण किए हुए पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप श्रावकधर्म को स्वयमेव स्वीकार करके विचरण करो तो तुम्हारी यह प्रव्रज्या सुप्रव्रज्या होगी। इसके बाद देव ने सोमिल ब्राह्मण को वन्दन-नमस्कार किया और वन्दन-नमस्कार करके जिस ओर से आया था उसी ओर अन्तर्धान हो गया। उस देव के अन्तर्धान हो जाने के पश्चात् सोमिल ब्रह्मर्षि देव के कथनानुसार पूर्व में स्वीकृत पंच अणुव्रतों को अंगीकार करके विचरण करने लगे। सोमिल की शुक्र महाग्रह में उत्पत्ति 25. तए णं से सोमिले बहिं चउत्थछट्टमं [जाव] मासद्धमासखमोह विचित्तेहि तवोवहाणेहि अप्पाणं भावेमाणे बहूई धासाई समणोवासगपरियागं पाउणइ, 2 त्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झसेइ, 2 ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेएइ, 2 ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कन्ते विराहियसम्मत्ते कालमासे कालं किच्चा सुक्कडिसए विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जसि [जाव] ओगाहणाए सुक्कमहग्गहत्ताए उववन्ने / तए णं से सुबके महग्गहे अहुणोववन्ने समाणे जाव भासामणपज्जत्तीए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org