________________ वर्ग 1: प्रथम अध्ययन] [15 यावत् प्रार्तध्यान करती हुई देखकर इस प्रकार बोला--'देवानुप्रिये ! तुम क्यों शुष्कशरीर, भूखी-सी यावत् चिन्ताग्रस्त हो रही हो ?' लेकिन चेलना देवी ने श्रेणिक राजा के इस प्रश्न का आदर नहीं किया अर्थात् उत्तर नहीं दिया / वह चुपचाप बैठी रही। तब श्रेणिक राजा ने पुनः दूसरी बार और फिर तीसरी बार भी यही प्रश्न चेलना देवी से पूछा और कहा-देवानुप्रिये ! क्या मैं इस बात को सुनने के योग्य नहीं हूँ जो तुम मुझसे इसे छिपा रही हो? दूसरी और तीसरी बार कही श्रेणिक राजा की इस बात को सुनकर चेलना देवी ने श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहा---'स्वामिन् ! ऐसी तो कोई भी बात नहीं है जिसे आप सुनने के योग्य न हों और न इस बात को सुनने के लिए ही आप अयोग्य हैं / परन्तु स्वामिन् ! बात यह है कि उस उदार यावत् महास्वप्न को देखने के तीन मास पूर्ण होने पर मुझे इस प्रकार का यह दोहद उत्पन्न हझा है'वे माताएँ धन्य हैं जो आपकी उदरावलि के, शूल पर सेके हुए यावत् मांस द्वारा तथा मदिरा द्वारा अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। लेकिन स्वामिन् ! उस दोहद को पूर्ण न कर सकने के कारण मैं शुरुकशरीरी, भूखी-सी यावत् चिन्तित हो रही हूँ। श्रेणिक का प्राश्वासन 13. तए णं से सेणिए राया चेल्लणं देवि एवं वयासी "मा णं तुमं, देवाणुप्पिए ! आहय [जाव] झियाहि / अहं णं तहा जत्तिहामि जहा णं तव दोहलस्स संपत्ती भविस्सइ" त्ति कटु चेल्लणं देखि ताहि इट्टाहि कन्ताहिं पियाहिं मणुन्नाहि मणामाहिं मोरालाहि कल्लाणाहिं सिवाहि धन्नाहि मङ्गल्लाहि मियमहरसस्सिरीयाहि वहिं समासासेइ, 2 ता चेल्लणाए देवीए अन्तियाओ पडिणिक्खमइ, 2 ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव सीहासणे, तेणेव उवामच्छइ, 2 ता सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहे निसीयइ, तस्स दोहलस्स संपत्तिनिमित्तं बहूहि पाहि उवाएहि य, उम्पत्तियाए य येणइयाए य कम्मियाए य पारिणामियाए य परिणामेमाणे 2 तस्स दोहलस्स आयं वा उवायं वा ठिई वा अविन्दमाणे ओहयमणसंकप्पे [जाव] झियाइ। [13] तब श्रेणिक राजा ने चेलना देवी की उक्त बात को सुनकर उसे आश्वासन देते हुए कहा-देवानुप्रिये ! तुम हतोत्साह एवं चिन्तित न होओ। मैं कोई ऐसा जतन (उपाय) करूगा जिससे तुम्हारे दोहद की पूर्ति हो सकेगी। ऐसा कहकर चेलनादेवी को इष्ट (अभिलषित), कान्त (इच्छित), प्रिय, मनोज्ञ, मणाम, प्रभावक, कल्याणप्रद, शिव (सुखद) धन्य, मंगलरूप मृदु-मधुर वाणी से आश्वस्त किया। तत्पश्चात् वह चेलना देवी के पास से निकला। निकलकर जहाँ बाह्य सभाभवन था और उसमें जहाँ उत्तम सिंहासन रक्खा था वहाँ पाया। आकर पूर्व की ओर मुख करके उस उत्तम सिंहासन पर आसीन हो गया। वह दोहद की संपूर्ति के प्रायों से उपायों से (युक्तियोंप्रयुक्तियों से) औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी-इन चार प्रकार की बुद्धियों से वारंवार विचार करते हुए भी इस के आय-उपाय, स्थिति एवं निष्पत्ति को समझ न पाने के कारण उत्साहहीन यावत् चिन्ताग्रस्त हो उठा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org