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________________ वर्ग 3 : प्रथम अध्ययन] [51 . तब वह अंगजित गाथापति इस संवाद को सुनकर हर्षित एवं संतुष्ट होता हुमा कार्तिक श्रेष्ठी' के समान अपने घर से निकला यावत् पर्युपासना की / धर्म को श्रवण कर और अवधारित कर उसने प्रभु से निवेदन किया-देवानुप्रिय ! ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करूंगा। तत्पश्चात् मैं आप देवानुप्रिय के निकट यावत् प्रवजित होऊंगा। गंगदत्त के समान वह प्रवजित हुअा यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया। अंगजित अनगार का उपपाद 5. तए णं से अङ्गई अणगारे पासस्स अरहओ तहारूवाणं थेराणं अन्तिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अङ्गाई अहिज्जइ, २त्ता बहूहिं चउत्थ [जाव] भावेमाणे बहूई वासाइं सामण्ण-परियागं पाउणइ, 2 त्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणाए छेइत्ता विराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा चन्दडिसए विमाणे उववाइयाए समाए देवसणिज्जंसि देवदूसन्तरिए चन्दे जोइसिन्दत्ताए उववन्ने। तए णं से चन्दे जोइसिन्दे जोइसियराया अहुणोववन्ने समाणे पञ्चविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छइ, तं जहा-पाहारपज्जत्तीए सरीरपज्जत्तीए इन्दियपज्जत्तीए सासोसासपज्जत्तीए भासामणपज्जत्तीए। [5] तत्पश्चात् अंगजित अनगार ने अर्हत् पार्श्व के तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन करके चतुर्थभक्त यावत् आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करके अर्धमासिक संलेखना पूर्वक अनशन द्वारा तीस भक्तों (भोजनों) का छेदन कर-त्याग कर काल मास में---मरण समय प्राप्त होने पर-मरण करके संयविराधना के कारण चन्द्रावतंसक विमान की उपपात-सभा की देवदूष्य से आच्छादित देवशैया में ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ। तब सद्यःउत्पन्न ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्र पांच प्रकार को पर्याप्तियों से पर्याप्तभाव को प्राप्त हुप्रा-पाहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छवासपर्याप्ति, और भाषामन:पर्याप्ति। चन्द्र का भावी जन्म 6. "चन्दस्स णं भन्ते, जोइसिन्दस्स जोइसरनो केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा ! पलिग्रोवमं वाससयसहस्समम्महियं / एवं खलु गोयमा, चन्दस्स जाव जोइसरन्नो सा दिव्या देविड्ढी। चन्दे णं भन्ते ! जोइसिन्दे जोइसराया तापो देवलोगाओ आउक्खएणं चइत्ता कहि गच्छिहिइ.२? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिजिलहिइ / 1-2. कार्तिक श्रेष्ठी और गंगदत्त का परिचय भगवती सत्र में देखिए। (आगम-प्रकाशन समिति, ब्यावर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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