________________ जो मानव वर्तमान जीवन में शुभ कृत्य करता है, वह मानव स्वर्गलोक में जाता है। वहाँ पर उसे प्रचुर मात्रा में अन्न और सोम मिलता है जिससे उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। कितने ही व्यक्ति विष्णुलोक५७ में जाते हैं तो कितने ही व्यक्ति वरुणलोक५६ में जाते हैं। वरुणलोक सर्वोच्च स्वर्ग है। बहदारण्यक उपनिषद् में ब्रह्मलोक का अानन्द सर्वाधिक माना है।६० बहदारण्यक छान्दोग्योपनिषद् और कौषीतकी उपनिषद् 3 में देवयान और पितृयान मार्गों का विशद वर्णन है। पौराणिक युग में तीनों लोकों में देवों का निवास माना गया है / प्राचार्य व्यास ने योगदर्शन व्यासभाष्य 4 के अनुसार पाताल, जलधि और पर्वतों में असुर, गन्धर्व किन्नर, किंपुरुष, यक्ष, राक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच, अपस्मारक, अप्सरस, ब्रह्म राक्षस, कुष्माण्ड, विनायक निवास करते हैं। भूलोक के सभी द्वीपों में पुण्यात्मा देवों का निवास है। सुमेरु पर्वत पर देवों के उद्यान हैं। सूधर्मा नाम की देवसभा है, सूदर्श उस नगरी में वैजयन्त नामक प्रासाद है। अन्तरिक्ष लोक के देवों में ग्रह, नक्षत्र, तारागण पाते अग्निष्वात्ता, याम्या, तुषित, अपरिनिर्मितवशवर्ती, परिनिर्मितवशवर्ती, महेन्द्र स्वर्ग में इन छह देवों का निवास है। कुमुद, ऋभु, प्रतर्दन, अंजनाभ, प्रचिताभ, ये पांच देव निकाय प्रजापति लोक में रहते हैं। ब्रह्मपुरोहित, ब्रह्मकायिक, ब्रह्ममहाकायिक और अमर, ये चार देव निकाय ब्रह्मा के प्रथम जनलोक में रहते हैं / आभास्वर महाभास्वर, सत्यमहाभास्वर ये तीन देव निकाय ब्रह्मा के द्वितीय तपोलोक में रहते हैं। अच्युत, शुद्धनिवास, सत्याभ संज्ञा संज्ञी, ये चार देव निकाय ब्रह्मा के तृतीय सत्य लोक में रहते हैं। पहले ब्रह्मा विष्णु और महेश ये तीन देव माने गए और उसके पश्चात् तेतीस प्रधान देव माने गए। फिर अक्षपाद आदि ने देवों की संख्या तेतीस करोड़ मानी / इस प्रकार देवों के तथा स्वर्ग के सम्बन्ध में वैदिक परभरा के महर्षियों की धारणा रही है।५ गहराई से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि इन धारणामों में समय-समय पर परिवर्तन और विकास हुआ है। यह स्पष्ट है कि भारतीय साहित्य में देव और देवलोक की चर्चाएँ अतीतकाल से ही थीं। जैन परम्परा के वाङमय में उसका जो व्यवस्थित क्रम मिलता है, उतना व्यवस्थित क्रम न बौद्ध परम्परा के साहित्य में है और न ही वैदिक परम्परा के साहित्य में। कल्पावतंसिका उपांग में श्रेणिक के दस पौत्रों की कथाएँ हैं, जिन्होंने अपने सत्कृत्यों से स्वर्ग प्राप्त किया था। इसमें व्रताचरण की उपयोगिता बताई है। पिताओं के नरक में रहने पर भी पुत्रों का सत्कर्म से स्वर्गलाभ बताया गया है। पिता का जीवन पतन की ओर बढ़ा और पुत्रों का जीवन उत्थान की ओर / पुरुषार्थ 56. ऋग्वेद 9-113-7 57. ऋग्वेद 1-1-54 58. ऋग्वेद 7-8-5 59. ऋगवेद 10-14-8; 10-15-7 60. बृहदारण्यक उपनिषद्, 4-3-33 61. बृहदारण्यक उपनिषद् 5-10-1 62. छान्दोग्योपनिषद् 4-15, 5-6; 521011-6. 63. कौषीतकी श२-४ 64. योगदर्शन व्यास-भाष्य, विभूतिपाद, 26 65. हिन्दू धर्म कोश, डा. राजबली पाण्डेय पृ. 326, देवता शब्द [20] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org