________________ 64 [पुष्पिका 21. तए णं से सोमिले तइयदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, 2 ता असोगवरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, 2 ता वेई वड्डइ जाव गङ्ग महाणइं पच्चुत्तरइ, 2 सा जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ / वेई रएइ, 2 त्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बन्धइ, 2 ता तुसिणीए संचिट्ठइ। तए गं तस्स सोमिलस्स पुग्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अन्तियं पाउभवित्था, तं चेव भणइ जाव पडिगए। तए णं से सोमिले जाव जलन्ते वागलवस्थनियत्थे किढिणसंकाइयं जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बन्धइ, २त्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए / [21] तदनन्तर वह सोमिल ब्रह्मर्षि तीसरे दिन अपराहण काल में जहां उत्तम अशोक वृक्ष था, वहां आए। आकर उस अशोक वृक्ष के नीचे कावड़ रखी। बैठने के लिए वेदी बनाई और दर्भयुक्त कलश को लेकर गंगा महानदी में अवगाहन किया। वहाँ स्नान आदि करके गंगा महानदी से बाहर निकले / निकलकर अशोक वृक्ष के नीचे वेदी-चना की। अग्निहवन आदि किया फिर काष्ठमुद्रा से मुख को बांधकर मौन बैठ गए। तत्पश्चात् मध्यरात्रि में सोमिल के समक्ष पुनः एक देव प्रकट हुआ और उसने उसी प्रकार कहा--'हे प्रवजित सोमिल ! तेरी यह प्रव्रज्या दुष्प्रवज्या है यावत् वह देव वापिस लौट गया। इसके बाद सूर्योदय होने पर वह वल्कल वस्त्रधारी सोमिल कावड़ और पात्रोपकरण लेकर यावत् काष्ठमुद्रा से मुख को बांधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा की ओर चल दिया। 22. तए णं से सोमिले चउत्थे दिवसे पच्छावरणहकालसमयंसि जेणेव वडपायवे तेणेव उवागए / वडपायवस्स अहे कढिणं संठवेइ, २त्ता वेई वड्डइ, उवलेवणसंमज्जणं करेइ, जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बन्धइ, तसिणीए संचिह। तए णं तस्स सोमिलस्स पृथ्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अन्तियं पाउभविस्था, तं चेव भणइ जाव पडिगए। तए णं से सोमिले जाव जलन्ते वागलवथनियत्थे किढिणसंकाइयं, जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बन्धइ, उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपस्थिए / [22] तदनन्तर चलते-चलते सोमिल ब्रह्मर्षि चौथे दिवस के अपराल काल में जहाँ बट वृक्ष था, वहाँ पाए। आकर वट वृक्ष के नीचे कावड़े रखी। बैठने के योग्य स्थान साफ किया / उसको गोबर मिट्टी से लोपा, स्वच्छ किया इत्यादि तक का समस्त वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। यावत् काष्ठमुद्रा से मुख बांधा और मौन होकर बैठ गए। इसके बाद मध्यरात्रि के समय पुनः सोमिल के समक्ष वह देव प्रकट हुआ और उसने पहले के समान कहा-'सोमिल ! तुम्हारी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है / ' ऐसा कहकर वह अन्तर्धान हो गया। रात्रि के बीतने के बाद और जाज्वल्यमान तेजयुक्त मूर्य के प्रकाशित होने पर वह वल्कल वस्त्रधारी सोमिल कावड़ लेकर और काष्ठमुद्रा से मुख बांधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा में चल दिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org