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(५७) सिंहजीको पत्रहारा भदौडमें मालुम हुई. तब चिंताके सबबसें अमरसिंहजीको ताप चढने लगा,
और तापके बिच बकवाद करने लगे, और "तुलशीराम" नामक अपने चेलेसे कहने लगा कि, " उठ ! लुधीआने चलके आत्मारामको सरकारमें कैद करादेवें ! क्योंकि, इसने मेरे सब चेले बहका दिये हैं. ” तब तुलशीरामने बहुत धीरज देके शांत किया. क्योंकि, तुलशीरामकी भी श्री आत्मारामजीकीही श्रद्धा थी, इसवास्ते जानतेथे कि, यह जूठे ढोंग करते हैं.
कितनेक दिनों पीछे अमरसिंहजीकी तरफसे पत्र ऊपर पत्र आनेसें. लाचार होकर श्री विश्नचंदजी लुधीआनेसें विहार करके, अंबाला शहेरमें जा चौमासा रहे; और श्री आत्मारामजीने संवत् १९२८ का चौमासा, “लुधीआने" मेंही किया.
चौमासे बाद श्रीआत्मारामजी, लुधीआनासे विहार करके “हुशीआरपुर में आये. वहां श्री विश्नचंदजी वगैरह बारा (१२) साधुओंने अमरसिंहके कितनेक साधुओंका भ्रष्टाचार मालुम होनेसें असरसिंहजीको कहा कि, “इन चौथे व्रतके भ्रष्टाचारीयोंको रखना आपको योग्य नहीं” तब अमरसिंहने, उनका कहा नही माना; और कहा कि. “ तुमारी श्रद्धा भ्रष्ट होगई है; तुमारा हमारा रस्ता पृथक् पृथक् है. " तब श्रीविश्नचंदजीने बहुत नम्रतासें कहा कि, "पूज्यजी साहिब! आप विचार करें ! अन्यथा पीछे आपको बडा पश्चात्ताप करना पडेगा. "परंतु अमरसिंहजीने बिलकुल शोचा नहीं. तब श्रीविश्नचंदजी वगैरह अमरसिंहजीसे अलग होकर श्रीआत्मारामजीको आन मिले, जब श्रीआत्मारामजीने कहा कि, " तुमने अच्छा काम नहीं किया. विना अवसर अलग होगये ! अभी अलग होनेका समय नहीं था. ." तब श्रीविश्नचंदजी वगैरहने कहा कि, “ हम क्या करें ? हमतो बहोतही समझाते रहें, परंतु पूज्यजी साहिब बिलकुल नहीं समझे. क्या हम भी उन भ्रष्टाचारीयोंके साथ मिलकर, अपना जन्म निष्फल करें ? " तब श्रीआत्मारामजीने कहा कि, “ अच्छा जो होवे सो हो. परंतु यदि तुमको इस देशमें विचरना होवे तो, जोर लगाकर शहरोंशहेर, और गामोंगाममें फिरके शुद्ध श्रद्धानका उपदेश करके श्रावकसमुदाय बनाओ. क्योंकि, बिना श्रावकसमुदायके इस पंचम कालमें, संजमका पालना कठिनहै. और यदि इस देशमें विचरना न होवे तो, चलो गुजरात देशमें चलके शुद्ध सनातन जैनधर्मके अव्यवच्छिन्न परंपरायके गुरु धारण करें; और उसी देशमें फिरें." तब कितनेक साधुओंने कहा कि, “महाराजजी साहिब ! यह काम हमसे नहीं बनेगा. इस देशको तो हम कदापि न छोडेंगे. इसवास्ते आपकी आज्ञानुसार हम, दो दो तीन तीन साधु अलग अलग विचरके क्षेत्रोंमें श्रावक समुदाय बनावेंगे. यह कोई बड़ी बात नहीं है. क्योंकि प्रायः सबही क्षेत्रों में पैर रखने जितना ठिकाना तो, आपने, और आपकी मददसें हमने भी कर रखा है."ऐसा कहकर श्रीविश्नचंदजी वगैरह बारासाधु अमरसिंहजीको छोडके आये थे वे,और आठ साधु जोगराजके, श्रीआत्मारामजी वगैरह, कुल वीस साधु, चारों तरफ जूदे जूदे शहरोंमें अपने पक्षके श्रावक समुदाय बनानेके वास्ते, विचरने लगे. वे सर्वक्षेत्रोंमें प्रायः सत्योपदेशहारा अपना बिछौंना बिछाते चले, और ढुंढकोंका बिछौंना उठाते चले. ऐसे करते करते श्रीआत्मारामजी, तथा श्रीविश्नचंदजी वगैरह साधुओंने "हुशीआरपुर, " " जालंधर, “नीकोदर, '! "झंडीआला, " " अमृतसर, " "पट्टी, " वेरोवाल, " कसूर, " नारोवाल, " " सनखतरा," "जीरा, '" कोटला, " "अंबाला," " लु(आना, "" " लाहोर, "" “रोपड," "जेजो,"
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