Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
View full book text
________________
सुचरित्रम्
यह प्रक्रिया समझा देती है कि संसार ही वह महान् कर्मस्थल है, जहाँ अपनी साधना या शोध का शौर्य दिखाने के बाद ही उन कर्मवीरों की पहचान बनती है। संसार का यह कर्मस्थल रोमांचकारी है तो उत्थानकारी भी कि इसी भूमि पर ही तो महानता का अंकुरण होता है। अत: मानव जीवन का यह भी प्रयोजन होना चाहिये कि यह कर्मस्थल सभी प्रकार से योग्य बने और महानता के अंकुर को पल्लवित एवं पुष्पित बनाने में पूर्ण सहायक हो (चरित्र की उत्कृष्टता उभारने से सम्बद्ध एवं उसकी सार्थकता को समृद्ध बनाने से प्रतिबद्ध)।
तभी संसार के रहस्य भेदन का रोमांच इतना आल्हादकारी प्रतीत होता है कि अपने सामने विशिष्ट जनों के पूर्वानुभवों का अम्बार रहने पर भी प्रत्येक व्यक्ति सारे अनुभव स्वयं अपने आप लेना चाहता है। शिशुकाल से लेकर आगे तक स्वस्थ रीति से यह रोमांच बना रहता है। सच तो यह है कि यही रोमांच अपने पूरे जीवन में उसे नए रहस्य भेदन के लिये प्रेरित करता रहता है, फलस्वरुप नई उपलब्धियाँ भी सामने आती रहती हैं। ये नई उपलब्धियाँ जितने अधिक परिमाण में सर्वजनहितकारी होती है, उसी परिमाण में वे लोकप्रिय भी बनती हैं। यही लोकप्रियता जिज्ञासु एवं रहस्य भेदक पुरुष को भी महानता से अलंकृत करती है। महानता का मार्ग संसार के प्रांगण से ही निकलता है। उभरती हुई चरित्रशीलता के समक्ष चुनौतियाँ ही चूनौतियाँ:
यहाँ देना है तो पाना है-परन्तु देना पहले और पाने की आकांक्षा नहीं रखना ही श्रेष्ठ सफलता दिलाता है। जो अपना जीवन देता है, वही उपलब्धियाँ पाता है, किन्तु सराहना वह पाता है जो उन दुर्लभ उपलब्धियों को भी संसार को लुटा देता है। इस प्रकार वह संसार को प्रगति-पथ ही नहीं दर्शाता, अपितु उस पथ पर चलने तथा चलते रहने की अद्भुत संकल्प-शक्ति भी भरता है। ऐसा समर्पण और त्याग वही व्यक्ति कर सकता है, जो चरित्रशील बनता है। चरित्रशील के मन में ही ऐसा सामर्थ्य जागृत होता है कि वह अपने जीवन को परहिताय यानी संसार के कल्याण के लिए उत्सर्ग कर दे। यही कारण है कि उभरती हुई चरित्रशीलता के समक्ष चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ आती हैं, जिनका सफलतापूर्वक सामना करके ही वैसे व्यक्तित्व की लोकप्रिय छवि बनती है।
जो चरित्रशील व्यक्ति एक बार लोक कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो जाता है वह फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखता । वह देखता है तो सिर्फ सामने की चनौतियाँ कैसी है और वह उन पर विजय कैसे पा सकता है? वह हिम्मत के साथ चुनौतियों से भिड़ता है, आगे बढ़ता है और कभी गिरता भी है तो दुगुने उत्साह से वापिस उठता है तथा अंततः उन्हें पछाड़ कर रहस्यों की परतों को चीर डालता है। उभरती हुई चरित्रशीलता प्रारंभिक विफलता से कभी निराश नहीं होती, अपितु सम्पूर्ण पराक्रम से सारी बाधाओं को दूर करके चुनौतियों को ललकारती ही नहीं, उन्हें हमेशा के लिये परास्त कर देती है।
वस्तु स्थिति (सत्य) तो यह है कि आज तक प्रत्येक क्षेत्र में जितनी भी प्रत्यक्ष उपलब्धियाँ प्राप्त हुई हैं, उनकी प्राप्ति का श्रेय केवल चरित्रशीलता को ही देना होगा। आगे भी सर्वत्र चरित्रशीलता ही श्रेयकारी बनी रहेगी। एक चरित्रशील व्यक्ति ही विवेक युक्त बनकर जिज्ञासु होता है और साहस के साथ साधना व शोध की राह चलकर उपलब्धियों को प्राप्त करता है एवं त्यागभाव से संसार को