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श्राद्धविधि प्रकरण क्योंकि जनताके स्वामीके सुख दुःखके साथ ही सामान्य जनोंका दुःख सुख घनिष्ट संबंध रखता है । चतुर पुरुषों द्वारा चंदनादिके शीतल उपचार करनेसे थोड़े समय बाद उस बालक शुकराज कुमारको चैतन्यतो प्राप्त हुई । चैतन्य आनेसे कुमारके चक्षु विकसित कमलके समान खुले परन्तु खेदकी बात है कि कुमारकी वाचा न खुली । कुमार चारों तरफ देखता है परन्तु बोल नहीं सकता। छद्मस्थावस्था में तीर्थंकर के समान मौनधारी कुमार बुलाने पर भी बोल नहीं सकता। यह अवस्था देखकर बहुतसे लोगोंने यह विचार किया कि इस रूप लावण्य युक्त कुमारको किसी देवादिकने छल लिया था। परन्तु दुःख इसी बातका है कि किसी दुष्ट कर्मके प्रभावसे इसकी जबान बंद हो गई। ऐसे बोलते हुए उसके माता पिता आदि संबंधी लोग महा चिंतामें निमग्न हो उसे शीघ्र ही राजदरबार में ले गये । वहां जाकर अनेक प्रकारके उपाय कराये परन्तु जिसप्रकार दुष्ट पुरुषकी दुष्टता दूर करनेके लिए बहोतसे किये हुए उपकार निष्फल होते है. वैसे ही अन्तमें सर्व प्रकारके उपचार व्यर्थ हुए । कुमारकी यह अवस्था करीब छह महिने तक चली पर इतने अंतरमें उसने एक अक्षर मात्र भी उच्चारण नहीं किया। एवं कोई भी मनुष्य उसके मौनका मूल कारण न जान सका । चंद्रमा कलंकित है, सूर्य तेजस्वी है, आकाश शून्य, वायु चलस्वभावी, चिन्तामणि पाषाण, कल्पवृक्ष काष्ट पृथ्वी रज (धूल), समुद्र खारा, मेघ काला, अग्नि दाहक, जल नीच गति-गामी, मेरु सुवर्णका होनेपर भी कठोर कर्पूर सुवासित परन्तु अस्थिर ( उडजाने वाला ), कस्तूरी भी श्याम, सजन धन रहित, लक्ष्मीवान् कृपण तथा मूर्ख, और राजा लालची, इसी प्रकार वाम विधिने सर्व गुण संपन्न इस बालक राजकुमारको भी गूंगा बनाया । हा! कैसी खेदकी बात है की रत्न समान सब वस्तुओंको विधाताने एक एक अवगुण लगाकर कलंकित करदिया । बड़े भाग्यशाली पुरुषोंकी दुर्दशा किस सजनके मनमें न खटके। अतः उस समय वहांपर एकत्रित हुए सर्व नागरिक लोग अत्यन्त खेद करने लगे । दैवयोगसे इसी समय क्रीड़ारसके सागर समान और जगत् जनोंके नेत्रोंको आनन्द कारी कौमुदी महोत्सव यानी शरद पूर्णिमाके चंद्रमाके महोत्सव का दिन उपस्थित हुआ। उस समय भी राजा अपने सर्व नागरिकोंके साथ और कमलमाला महाराणी एवं शुकराज कुमार सहित बाह्योद्यानमें आकर उसी आम्र वृक्षके नोचे बैठा । पहिली बात याद आनेसे राजा खिन्न चित्त हो रानीसे कहने लगा “हे देवि ! जिस प्रकार विष वृक्ष सर्वथा त्याज्य है वैसे ही हमारे इस शुकराज पुत्र रत्नको ऐसा अत्यन्त विषम दुःख इस आम्रवृक्षसे ही उत्पन्न हुआ है। अतः यह वृक्ष भी सर्वथा त्याज्य है" । राजा इतना बोलकर जब उस वृक्षको छोड़ दूसरे स्थानपर जानेके लिए तैयार होता है इतनेमें ही अकस्मात् उसी आम्रवृक्ष के नीचे अत्यन्त आनंदकारक देवदुदुभी का नाद होने लगा। यह चमत्कार देखकर राजा पूछने लगा कि यह दैविक शब्द कहांसे पैदा हुआ ? तब किसी एक मनुष्य ने आकर कहा कि महाराज! यहांपर श्रीदत्त नामा एक मुनिराज तपश्चर्या करते थे उन्हें इसवक्त केवलज्ञान प्राप्त हुआ है । अतः देवता लोक अपने दैविक वाजित्रों द्वारा उनका महोत्सव करते हैं । इतना सुनकर राजा प्रसन्नचित्त होकर बोला कि हमारे इस पुत्र रत्नके मौनका कारण वे केवली भगवान् ही कह सकेंगे। इसलिए हमें भी अब उनके पास जाना चाहिए ऐसा कहकर राजा परिवार सहित मुनि के पास जाने लगा। वहां जाकर चंदनादिक पर्युपासना कर केवली भग