________________
शान्तसुधारस
४. सुमनसो! मनसि श्रुतपावना, निदधतां व्यधिका दश भावनाः।
यदिह रोहति मोहतिरोहिताऽद्भुतगतिविदिता समतालता।
हे निर्मलचित्तवालो! तुम आगमवाणी से परिपूत बारह भावनाओं को अपने अन्तःकरण में स्थापित करो, जिससे कि मोह से तिरोहित, अद्भुत गतिवाली इस विश्रुत समतारूपी लता का अंकुरण हो सके। ५. आर्त्तरौद्रपरिणामपावक-प्लुष्टभावुकविवेकसौष्ठवे।
मानसे विषयलोलुपात्मनां, क्व प्ररोहतितमां शमाऽङ्कुरः?
विषय-लोलुप प्राणियों के उस मानस में, जिसके कल्याणकारी विवेक की निर्मलता आर्त-रौद्रध्यानमय परिणामरूपी अग्नि से जल गई है, उसमें उपशम (शान्ति) का अंकुर उत्पन्न ही कहां होता है? ६. 'यस्याशयं श्रुतकृताऽतिशयं विवेक
पीयूषवर्षरमणीयरमं श्रयन्ते। सद्भावनासुरलता न हि तस्य दूरे,
लोकोत्तरप्रशमसौख्यफलप्रसूतिः॥ जिस प्राणी का आशय-चित्त आगमवाणी से विशिष्ट बना हुआ है, जो विवेकरूपी अमृतवर्षा से अत्यन्त रमणीय है, उस प्राणी का जब सद्भावनारूपी कल्पलता आश्रय लेती है तब उसके लिए परलोक में उपशम सुख के फल की उत्पत्ति दूर नहीं रहती। ७. अनित्यताऽशरणते, भवमेकत्वमन्यताम्।
अशौचमाश्रवं चाऽऽत्मन्!, संवरं परिभावय॥ ८. कर्मणो निर्जरां धर्म, सुकृतां लोकपद्धतिम्।
बोधिदुर्लभतामेताः, भावयन् मुच्यसे भवात् ।।युग्मम्॥ . हे आत्मन्! तू अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशौच, आसव, संवर, कर्मनिर्जरा, धर्म, सुव्यवस्थित लोकपद्धति और बोधिदुर्लभता- इन बारह भावनाओं (अनुप्रेक्षाओं) का अनुचिन्तन करता हुआ भवमुक्त हो जाएगा। १. द्रुतविलम्बित। २. रथोद्धता। ३. वसन्ततिलका। ४. विवेकः-सदऽसद्वस्तुविचारः, स एव पीयूषं, तस्य वर्षः-वृष्टिः, तेन रमणीया रमा-कान्तिर्यस्य, तम्। ५. अनुष्टुप् ।