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२. चक्रवर्ती का भोजन
'महाराज की जय हो, विजय हो', सहसा राजसभा में एक स्वर गूंजा। स्वर के साथ ही शतशः दर्शकों की आंखें उस ओर लग गईं। चक्रवर्ती सम्राट का राज-दरबार लगा हुआ था। वे अपने सभासदों के बीच परस्पर विचारमन्त्रणा कर रहे थे। एक दीन-हीन अकिंचन ब्राह्मण, जो भाग्य और लक्ष्मी दोनों से अभागा था, आज जन-जन का मुंहताज बना हुआ खड़ा था। दरिद्रता उसकी सहचरी बनी हुई थी और भाग्यमन्दता उसका हाथ पकड़े-पकड़े पीछेपीछे घूम रही थी। दरिद्रता उसकी बड़ी बहिन थी तो दुर्भाग्य उसका छोटा भाई था। दोनों का वह बचपन से निर्वाह करता चला आ रहा था। लक्ष्मी ने सदा ही उसे पैरों से रौंदा और भाग्य ने कभी उसे ऊपर उठने नहीं दिया। निर्धनता के कारण उसका सर्वस्व लुट चुका था। खाने को भरपेट भोजन नहीं, शरीर ढांकने को वस्त्र नहीं और रहने को स्थान नहीं था। जैसे-तैसे वह आधा भूखा रहकर अपने दिन बिताता था। फटे-पुराने कपड़ों को पहनकर सर्दी-गर्मी से बचाव करता था और टूटी-फूटी झोंपड़ी में ही रात-बसेरा करता था। निर्धनता मानो उसके लिए एक अभिशाप बनी हुई थी। आज उस अभिशापमुक्ति के लिए ही वह राजदरबार में उपस्थित हुआ था।
सम्राट ने सहसा उस व्यक्ति को देखा। शरीर के कण-कण से उसकी दरिद्रता परिलक्षित हो रही थी। सम्राट ने उससे पूछते हुए कहा-अरे! महाभाग! आज तू यहां क्यों और किसलिए आया है? ।
विभो! मैं प्रभुदर्शन और प्रभु-अनुग्रह के लिए आया हं, आप अन्तर्यामी हैं, घट-घट के ज्ञाता हैं, फिर आपसे छिपा ही क्या है? आपकी दृष्टि में ही मेरी सृष्टि निहित है। यदि आपकी मुझ पर करुणा और अनुग्रह की दृष्टि पड़ जाती है तो मैं अपने आपमें निहाल हो जाता हूं और मेरी दरिद्रता का चिरसंताप दूर हो जाता है। अब आप ही मेरे प्रतिपालक हैं, मैं आपके शरणागत हूं। आपके सिवाय अब मेरा है ही कौन?
ब्राह्मण की मृदुभाषिता तथा दरिद्रता सम्राट के अन्तःकरण को छू गई।