Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 194
________________ १७२ शान्तसुधारस अशौच भावना-शरीर की अशुचिता के विषय में चिन्तन करना। असत्क्रिया-पापबन्धकारक क्रिया। उसके पचीस प्रकार हैं। विस्तार के लिए देखें-(ठाणं, २-२-३७)। आगमवाणी-वीतराग की वाणी। आत्मगुण-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनन्द और शक्ति ये आत्मा के गुण हैं। आत्मा-चैतन्यमय शाश्वत तथ्य। आप्त-यथार्थ को जानने वाला और उसका प्रतिपादन करने वाला। आभ्यन्तर तप-जो मोक्ष-साधना के अंतरंग कारण हैं उन्हें आभ्यन्तर तप कहा जाता है। उसके छह प्रकार हैं १. प्रायश्चित्त-अनाचरणीय कार्य होने पर दोष-शुद्धि के लिए स्वीकार किया जाने वाला अनुष्ठान। २. विनय-बड़ों के प्रति बहुमान करना, उनके प्रति होने वाली आशातना-असद्व्यवहार का वर्जन करना। ३. वैयावृत्त्य आचार्य आदि की सेवा करना। ४. स्वाध्याय-अध्यात्म-शास्त्रों का पठन-पाठन करना। ५. ध्यान आध्यात्मिक विकास के लिए मन को किसी एक आलम्बन पर केन्द्रित करना। ६. कायोत्सर्ग या व्युत्सर्ग-शरीर का हलन-चलन, प्रवृत्ति और कषाय आदि का विसर्जन करना। आस्रव-जिससे कर्मों का आस्रवण-आकर्षण होता है उस आत्मपरिणाम को आस्रव कहते हैं। वे पांच हैं१. मिथ्यात्व-तत्त्व के प्रति विपरीत श्रद्धा या अरुचि। २. अविरति अत्यागवृत्ति, पौद्गलिक सुखों के प्रति अव्यक्त लालसा। ३. प्रमाद-धर्म के प्रति अनुत्साह। ४. कषाय-आत्मप्रदेशों में राग-द्वेषात्मक उत्ताप। ५. योग-मन-वचन-काया की प्रवृत्ति। आस्रव भावना-कर्मों के आकर्षण के हेतुभूत साधनों का अनुचिन्तन करना।

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