Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 186
________________ १६४ शान्तसुधारस वह व्यक्ति अपने गन्तव्य की ओर बढ़ा जा रहा था। उस लम्बी मौत - यात्रा को संपन्न कर उसने सहसा सुख की सांस ली और सम्राट् के चरणों में उपस्थित हो गया। भरत ने प्रश्न करते हुए पूछा- 'क्यों, घूम आए?' 'हां! महाराज ।' 'नगर में क्या कुछ देखा ?' 'प्रभो! कुछ भी नहीं।' 'अरे! कहीं नाटकमंडलियों के नृत्य तो देखें होंगे ?' 'महाराज ! सच कहता हूं कि मौत के सिवाय कुछ भी नहीं देखा । ' 'कहीं राग-रागिनियों को तो सुना होगा ?" 'केवल मौत की गुनगुनाहट से ज्यादा कुछ नहीं सुना।' 'कहीं बीच में विविध प्रकार के मिष्टान्नों और सुगन्धित द्रव्यों को तो सूंघा ही होगा?' 'महाराज भी कैसा मजाक कर रहे हैं, मौत के सामने खाना और सूंघना किसको याद आता है? केवल हर क्षण मौत, मौत और मौत ही घूर रही थी। ' 'लगता है तब तो तुम एक ही मौत से घबरा गए। एक मौत वस्तु जगत् के कितने विषयों से उबार सकती है तो फिर मुझे उसमें कैसे लिप्त करेगी? मैं तो मौत की परम्परा से चिर-परिचित हूं। इतने बड़े साम्राज्य का संचालन करते हुए भी मैं उसमें लिप्त नहीं हूं। 'मुझे मरना है' - यह सूत्र निरन्तर मेरे स्मृति-पटल पर नाचता रहता है और इसलिए मैं मोह-ममत्व से बचा हुआ हूं।' सम्राट् भरत राज्य संचालन करते हुए भी अनासक्ति और निर्लेपता का जीवन जी रहे थे। भगवान् ऋषभ के दर्शन के पश्चात् तो उनकी अन्तर्मुखता दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। उनका प्रत्येक कार्य जागरूकता तथा सावधानीपूर्वक निष्पन्न होता था । एक दिन सम्राट् भरत स्नानागार में स्नान कर रहे थे। स्नान के पश्चात् उन्होंने वस्त्राभूषणों से शरीर को अलंकृत किया और फिर अपने आपको देखने के लिए आदर्शगृह में चले गए। चारों ओर उनका प्रतिबिम्ब प्रतिबिम्बित हो रहा था। अपने रूप को देखते हुए सहसा एक प्रतिबिम्ब पर उनका ध्यान केन्द्रित हो गया। वे अपने प्रतिबिम्ब में इतने तल्लीन हो गए कि उन्हें पता ही नहीं चला कि मैं कहां खड़ा हूं। अनिमेष नेत्र अपने ही प्रतिबिम्ब को निहारते रहे। देखते-देखते

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