Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 185
________________ सम्राट् भरत १६३ आध्यात्मिक सम्पदा के सामने अकिंचित्कर तथा फीकी-फीकी-सी लग रही थी। भगवान् के समवसरण की भव्यता, उनकी तेजस्विता तथा सुर, असुर, मानव, तिर्यञ्च की समवेत उपस्थिति सम्राट के लिए नई-नई, किन्तु नयनाभिराम थी। सम्राट् भरत समवसरण में यथास्थान बैठ गए। उस समय भगवान् धर्मदेशना कर रहे थे। सभी श्रोतागण उस देशना में समरस बने हुए आकण्ठ डूबे हुए थे। देशना समाप्त हुई। यथाशक्ति जनता ने त्याग-प्रत्याख्यान किए और अपने घर लौट गई। तत्पश्चात् किसी ने भगवान् से जिज्ञासा करते हुए पूछा-भन्ते! आपकी इस परिषद् में इसी जन्म में मुक्त होने वाला कौन है? भगवान् ने कहा-भरत इसी जन्म में मोक्ष जाने वाला है। प्रश्नकर्ता को सर्वज्ञवचन पर विश्वास नहीं हो रहा था, प्रत्युत वह मान रहा था कि जिस भरत ने चक्रवर्ती बनने के लिए बड़ी-बड़ी लड़ाइयां लड़ी, नर-संहार किया, फिर भी वह मुक्त हो जाए, यह कितना विचित्र है? उसने तत्काल आवेश में कह दिया कि लगता है कि भगवान् भी अपने पुत्र भरत का पक्ष ले रहे हैं। उसकी वह वाचालता तथा असभ्यता सम्राट को बहुत अखरी। भगवान् के ऊपर दोषारोपण भरत कैसे सहन कर सकते थे? उन्होंने तत्काल मृत्यु-दण्ड का आदेश सुना दिया। अपराधी ने अपने अपराध के लिए सम्राट् से बार-बार क्षमा-याचना की, बहुत अनुनय-विनय किया, किन्तु सम्राट ने कहा-एक शर्त पर तुम्हें छोड़ा जा सकता है। तैल से लबालब भरा एक कटोरा हाथ में लेकर यदि तुम अयोध्या नगरी में घूमो, तैल की एक भी बूंद नहीं गिरे तो तुम मुक्त हो जाओगे, अन्यथा जहां बूंद गिरेगी वहीं तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा। एक ओर मृत्युदण्ड का भय तो दूसरी ओर सम्राट की कठोर शर्त। दोनों में किसी को तो पूरा करना ही था, मरता क्या नहीं करता। आखिर उसे राजा की शर्त स्वीकार करनी पड़ी। सारे शहर में वह अपराधी तैल से भरे उस कटोरे को लेकर घूम रहा है। मन में एक ही भय है कि कहीं तैलबिन्दु गिर न जाए, जिससे कि मृत्युदण्ड भोगना पड़े। पीछे-पीछे शस्त्रों से सज्जित प्रहरी निगरानी के लिए लगे हुए हैं। बाजारों में कहीं अपार जनसमूह खड़ा है तो कहीं दकानें सजी हुई हैं। कहीं नाटक मंडलियां नृत्य कर रही हैं तो कहीं रास रचाए जा रहे हैं। कहीं मधुर संगीतों की धुनें बज रही हैं तो कहीं विविध प्रकार के राग-आलाप किए जा रहे हैं। नीची नजर किए अपनी ही धुन में मानो किसी अलमस्त योगी की भांति

Loading...

Page Navigation
1 ... 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206