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४. संकेतिका
द्वन्द्वात्मक जीवन में मनुष्य को जितना आनन्द और रस का अनुभव होता है उतना आनन्द और रस अकेलेपन में नहीं होता। दो होने का अर्थ है-संघर्ष, टकराहट और भय। दो मिलते हैं कि एक नई स्थिति का निर्माण हो जाता है। दो चकमक पत्थर मिले कि अग्नि के स्फुलिंग उछल गये। दो बादल मिले कि भयंकर गर्जन और विद्युत् कौंध गई और दो नक्षत्र मिले कि उल्कापात हो गया।
व्यक्ति ने सदा ही द्वन्द्वात्मक सृष्टि का निर्माण किया। जब वह इस जगत् में आता है तो सर्वप्रथम शरीर से सम्बन्ध स्थापित करता है, फिर परिवार के सदस्यों से अपना सम्पर्क जोड़ता है और फिर समाज और राष्ट्र के लोगों के साथ सम्बन्धों की योजना करता है। इस प्रकार एक से दो और दो से चार की निर्मिति हो जाती है और सम्बन्धों की नई दुनिया बनती जाती है। सम्बन्ध बनाने का अर्थ है द्वन्द्व और द्वन्द्व का अर्थ है-ममकार की सृष्टि। जहां ममकार होता है वहां आसक्ति होती है, लगाव होता है। व्यक्ति परपदार्थ के परिग्रह में इतना उलझा हुआ है कि वह नाना प्रकार की ममताओं का भार ढोता चला जा रहा है। वह जितना भार ढोता है उतना ही मोह में निमज्जन करता जाता है।
आत्मानुभव करने वाले मनीषियों ने कहा-'यह आत्मा अकेली है, शेष सब पदार्थ उसकी परिधि और उपाधिमात्र हैं।' मनुष्य ने कभी अकेलेपन का अनुभव नहीं किया, इसलिए वह सत्य को उपलब्ध नहीं हो सका। कुछेक दार्शनिकों के सामने अभी भी एक प्रश्नचिह्न उपस्थित है-क्या सम्बन्धों की इस दुनिया में एकाकी रहना संभव है? क्या व्यवहार के धरातल पर अकेला बनकर कोई व्यक्ति जी सकता है? इसका उत्तर आत्म-रमण करने वाले लोगों ने दिया। उन्होंने कहा भीड़ में भी व्यक्ति अकेला रह सकता है और अकेला रहता हुआ भी अकेला नहीं रह सकता। मनुष्य केवल शरीर, समाज और राष्ट्र की