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सब कुछ अनित्य है
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ले। ऐसा सोचकर उसने सारी गोलियां एक साथ आसेवन कर लीं। कुछ समय बीता कि गोलियों ने अपना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ किया । बत्तीस गर्भ एक साथ ही उदर में आ गए। आखिर पेट तो पेट ही था, उसमें इतने अधिक जीव कैसे समा सकते थे? भयंकर और असह्य वेदना से सुलसा के दिन बीतने लगे। मंगल में अमंगल घटित होने लगा । संजोई हुई सुनहली आशाएं धूमिल होने लगीं। देव ने सुलसा की इस भयंकर वेदना और विकट परिस्थिति को देखा और पुनः उसकी सेवा में उपस्थित हो गया । उसने सुलसा से कहा- बहिन ! तुमने ऐसी भयंकर भूल की है कि जो तुम्हें नहीं करनी चाहिए थी। खैर ! जो कुछ हुआ अब उसके अनुताप से क्या ? फिर भी मैं अपनी लब्धि से जितना कष्ट दूर कर सकता हूं, करूंगा ही । तुम निश्चिन्त रहो, निश्चित समय आने पर तुम्हारी मनोकामना सफल होगी। तुम्हारी कुक्षि से बत्तीस पुत्र उत्पन्न होंगे। यदि उनमें से एक का भी वियोग हो गया तो सभी का वियोग होना निश्चित है। इस संभावना को कोई नहीं टाल
सकता।
देववचनों से सुलसा को कुछ संबल मिला और दैवयोग से उसके गर्भाधान की कष्टानुभूति भी कम हुई। गर्भ की अवधि पूरी होने पर सुलसा ने बत्तीस पुत्रों को जन्म दिया। सभी पुत्र आकार-प्रकार में एक समान और रूपवान् थे। उनके अंग-अंग में सुकुमारता, सहजता और बाल-सुलभ क्रीड़ाएं अठखेलियां कर रही थीं। नागरथिक की चिरकांक्षित अभिलाषा साक्षात् उसके आंगन में क्रीड़ा कर रही थी। मनमयूर अपने घर में सावन को देखकर नाच रहा था। घर का सारा वातावरण ही मानो कुछ नया-नया-सा नजर आ रहा था। सूना-सूना वह आंगन आज कितना सुनहला लग रहा था! घर की वह नन्हीं बगिया मानो बत्तीस कमलों को पाकर हंस रही थी । नागरथिक ने आज भावी जीवन की जितनी कल्पनाओं को संजोया, शायद उतनी कल्पनाएं उसने अतीत में कभी नहीं संजोई। जब भी वह अपने आंगन में बच्चों को क्रीड़ा करते हुए देखता तो सहसा उसका अन्तःकरण मोद से भर जाता । उसका जीवन पतझड़ को पारकर पुनः वसन्तोत्सव मना रहा था ।
बत्तीस ही कुमार बड़े हुए। उनको कला, शिक्षा आदि बहुविध कलाओं से पारंगत किया गया। अल्पसमय में ही उन्होंने सभी कलाओं को सीखकर अपने-अपने कार्य में प्रवीणता और दक्षता प्राप्त की और यौवन की दहलीज को पार कर प्रणयसूत्र में बंध गए। महाराज श्रेणिक ने उन सबको अपने