Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 182
________________ १६० शान्तसुधारस इस प्रकार सोचते हुए महामुनि मेतार्य ध्यान-प्रकोष्ठ में लीन हो गए। ज्ञाता-द्रष्टा होकर शरीर और आत्मा की पृथक् अनुभूति करने लगे। स्वर्णकार अब आपे से बाहर हो चुका था। उसने सोचा श्रमण का मन ललचा गया है। वे दण्ड के बिना मानेंगे नहीं। उसने तत्काल गीले चर्मपट्ट से मेतार्य मुनि का सिर बांध दिया। सूर्य के आतप से जैसे-जैसे वह चमड़े का पट्ट सिकुड़ रहा था, सिर में भयंकर वेदना हो रही थी। उनके मन में न शरीर के प्रति व्यामोह था और न स्वर्णकार के प्रति कोई आक्रोश। वे माध्यस्थ्य अनुप्रेक्षा का अनुचिन्तन करते हुए उन सब कष्टों को सह रहे थे। चमड़े के सूखने के साथ ही उनके आवारक, विकारक और विघातक कर्म भी सूख-सूखकर झड़ रहे थे। एकाएक असह्य वेदना से वे बेहोश होकर भूमि पर लुढ़क गए। समता में प्रतिष्ठित हो गए। केवलज्ञान की ज्योति से जगमगाते हुए सिद्ध, बुद्ध और मुक्त बन गए। क्रौंच पक्षी अभी भी दुकान के छज्जे पर बैठा हुआ था। सहसा उसी समय एक लकड़हारा लकड़ियों का भार लेकर वहां आया। उसने अपना भार हल्का करने के लिए उस काष्ठभार को जोर से जमीन पर पटका। उस तीव्र ध्वनि से क्रौंच पक्षी भयभीत हो गया। भय के मारे क्रौंच पक्षी के विष्ठा हो गई और वे सारे स्वर्ण-यव विष्ठा के साथ बाहर निकलकर आ गिरे। स्वर्णकार ने गिरते हुए उन यवों को देखा। एक ओर यव मिलने की प्रसन्नता थी तो दूसरी ओर बिना सोचे-समझे मुनिहत्या की विषण्णता। वह कांप उठा। सर्वत्र उसे मौत दिखाई देने लगी। बचाव का कोई दूसरा उपाय नहीं था। उसने तत्काल वेश बदला और साधना के पथ पर अग्रसर हो गया। अनुरक्ति से विरक्ति और राग से विराग की ओर प्रस्थान करता हुआ वह भी एक दिन मंजिल को उपलब्ध हो गया।

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