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माध्यस्थ्य भावना
१६. मुनि मेतार्य
जेठमास की चिलचिलाती धूप। आकाश तप रहा था तो नीचे धरती तप रही थी। महामुनि मेतार्य उस तप्ति में राजगृह के मार्गों पर पर्यटन करते हुए घरघर भिक्षा की एषणा कर रहे थे। एक मास का उपवास, शरीर से कृश और मुखमण्डल पर साधना की प्रदीप्ति। वे जन्मना चाण्डाल तथा सम्राट् श्रेणिक के संसारपक्षीय जामाता थे। वे भगवान् महावीर के संघ में दीक्षित हुए और दीक्षा के साथ ही जातीयता के कटघरे से भी मुक्त हो गए। उनका अन्तस् साधना के आलोक में आलोकित हो उठा। वे एक महान् साधक बन गए, साधना की उत्कृष्ट भूमिका में पहुंचकर एकलविहारी हो गए।
आज वे भिक्षा के लिए घूमते-घूमते किसी स्वर्णकार के घर जा पहुंचे। उस समय स्वर्णकार महाराजा श्रेणिक का हार बनाने के लिए सोने के यवों को गढ़ रहा था। कार्य में तत्परता और तल्लीनता थी। उसे यह हार आज ही सम्राट् को भेंट करना था। कुछ क्षण उसने मुनि की ओर ध्यान ही नहीं दिया। सहसा दृष्टि ऊपर गई तो देखा मुनि खड़े हैं। मुनि को वन्दन करता हुआ वह उठ खड़ा हुआ। अन्तःकरण प्रसन्नता से भर गया। उसने अभ्यर्थना करते हुए कहा-महाश्रमण! आपने बहुत कृपा की। मेरे आंगन को पवित्र किया। मेरा अहोभाग्य है। आप कुछ क्षण रुकें। मैं देखकर आ रहा हूं कि रसोई बनी है या नहीं? स्वर्णकार यवों को बिखरा हुआ छोड़कर घर के भीतर चला गया। घर दुकान से सटा हुआ था। मुनि वहीं खड़े रहे। दुकान के छज्जे पर पहले से ही क्रौंच पक्षी का एक युगल बैठा था। वह अवसर की ताक में था। स्वर्णकार के जाने के बाद वह पांखों को फड़फड़ाता हुआ नीचे उतरा और पड़े हुए उन स्वर्णयवों को अपना भक्ष्य समझकर निगल गया और फिर छज्जे पर जा बैठा।