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उदय : अस्त
१४१ रहे थे। निशा की पूर्व सूचना संध्या के बादलों में आ चुकी थी। सहसा इस दृश्य को देखकर हनुमान के अन्तर्मानस में एक विचित्र प्रकार की प्रतिक्रिया उत्पन्न हो गई। उन्हें प्रकृति के इस वातावरण से अनायास ही एक बोधपाठ मिल गया। उन्होंने मन ही मन सोचा-अरे! क्या इस लोक का यही स्वरूप है? जो आता है क्या वह एक दिन अवश्य जाता है? जो सूर्य प्रभातकाल में इस लोक को प्रकाशित कर रहा था, अपनी तेज अरुणाभ-रश्मियों को बिखेर रहा था, क्या वह संध्या के समय इस प्रकार आलोकशून्य और दीप्तिविहीन बन गया? सभी प्राणी इस लोक में एक दिन उदित होते हैं और पुनः अस्त हो जाते हैं। क्या उदय अस्त से संवलित है? ओह! महान् प्रतापी सूर्य भी अस्त हो रहा है? क्या मुझे भी इस प्रकार अस्त होना पड़ेगा? उन्हें स्वयं के प्रश्न का समाधान स्वयं प्रकृति से मिल रहा था। सहज ही मन वैराग्य से भर गया? अब उन्हें उदय-अस्त की परम्परा से बंधे रहना असह्य लगने लगा। वे चाहते थे अब उस शाश्वत सुख
और उस अवस्था को प्राप्त करना, जहां न कभी उदय हो और न कभी अस्त हो। उन्होंने अपना प्रस्ताव रानियों को कह सुनाया। बहुत अनुनय-विनय के पश्चात् भी वे राजसत्ता में लिप्त नहीं हुए। घर आकर उन्होंने राज्य की समुचित व्यवस्था की और स्वयं साधना की संकरी पगडंडियों पर बढ़ चले। पुरुषार्थ का दीपक प्रज्वलित हुआ, गुणस्थानों की भूमिका में आरोहण हुआ और अन्त में वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए।