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मैत्री का आयाम
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पर्व की प्रतिष्ठा के लिए अपने स्वार्थ को त्याग दिया। अतीत की सब बातों को भुलाकर स्वयं वह मैत्री की वेदी पर प्रतिष्ठित हो गया। कुछ ही क्षणों में चण्डप्रद्योत न केवल शरीर के बन्धन से मुक्त हुआ, अपितु भीतर छिपे हुए शत्रुता के बन्धन से भी मुक्त हो गया। दोनों अधिपति मैत्री के बन्धन में बन्ध गए। अब दोनों एक-दूसरे के गले मिलते हुए अन्तर्मन से क्षमायाचना कर रहे थे। चण्डप्रद्योत क्षमा मांग रहे थे तो उद्रायण उसे क्षमा दे रहे थे। परस्पर एक विनिमय और आदान-प्रदान हो रहा था | मैत्री की सुरभि से महकता हुआ सारा वातावरण मैत्रीमय हो रहा था और सबके अधरों पर गूंज रहा था वह मैत्रीमंत्रखामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झ न केणई ||