Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 176
________________ १५४ शान्तसुधारस आपको भावितकर शिवपुर जाने का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। अहो ! मैं कितना धृष्ट और अविनीत हूं कि मैंने अपनी धृष्टता के कारण गुरु को भी उत्तेजित कर दिया। मेरे गुरु कितने उपकारी, बात-बात में मेरा कितना ध्यान रखने वाले! जो अरस-विरस आहार घी के उपलब्ध न होने पर मुझे करना पड़ता आज उस नीरस आहार को भी गुरुदेव ने करुणा कर मेरे लिए सरस बना दिया । इस प्रकार मुनि कूरगडूक अपने ही दर्पण में अपनी कमजोरियों को देख रहे थे और प्रमोद अनुप्रेक्षा करते हुए दूसरों के गुणों का अनुमोदन कर रहे थे। इस प्रमुदिता के कारण उनके क्रमशः कर्मबन्धन भी शिथिल होते चले जा रहे थे, संयम-नाव भवसागर को पार कर तट पर पहुंचने को थी । सहसा उसी बीच जैनशासन की अधिष्ठात्री देवी चक्रेश्वरी वहां आई और आचार्यवन्दन किए बिना ही कूरगडूक के पास जाने लगी। दूसरे मुनियों ने जब इसका कारण पूछा तो देवी ने कहा- मैं अभी-अभी अर्हत् सीमंधरजी स्वामी के समवसरण से आ रही हूं। उन्होंने एक रहस्य प्रकट करते हुए कहा है कि इसी भरतक्षेत्र में अभी-अभी मुनि कूरगडूक को केवलज्ञान उपलब्ध होने वाला है। मैं अपनी उत्सुकता को नहीं रोक सकी और उनके दर्शन करने यहां आई हूं। देवी की बात सुन मुनिजन खिलखिलाकर हंसने लगे और सोचा- जो मुनि एक उपवास भी नहीं कर सकता वह केवलज्ञानी बने, कैसे संभव है? मुनि कूरगडूक प्रमोद अनुप्रेक्षा करते हुए निरन्तर ऊर्ध्वगामी बन रहे थे। उत्कर्षता, उत्कर्षता, निरन्तर उत्कर्षता उनके भावों को विशुद्ध कर रही थी, सहसा उन्होंने अपने विशुद्ध परिणामों से एक छलांग भरी। मोह का पूर्ण विलय हुआ । आवरक कर्मों का बन्धन टूटा और वे केवलज्ञान के आलोक से आलोकित हो उठे। चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश, न कोई राग और न कोई द्वेष । सर्वत्र वीतरागता ही वीतरागता । व्योममार्ग में देवदुन्दुभियां बज उठीं। सबने उस नाद को सुना । केवलज्ञान-महोत्सव मनाने के लिए देवता मर्त्यलोक में आने लगे, सबने उस दृश्य को देखा। आचार्य विमलद्युति की चेतना अन्तर्मुखी हुई । उनको अपने द्वारा किए गए अविमृष्ट कार्य के प्रति आत्मालोचन हुआ और कूरगडूक मुनि की साधना की उत्कृष्टता का मूल्यांकन किया। अपने मानसिक परिणामों की विशुद्धता के कारण आचार्य विमलद्युति ने भी उस गहराई को नाप लिया। देखते-देखते वे भी केवलज्ञान की भूमिका तक पहुंच गए। अब इस धरती को एक नहीं दो-दो भास्कर अपनी केवलज्ञान की रश्मियों से प्रभास्वर कर रहे थे और जनता उस आदित्ययुगल से लाभान्वित हो रही थी।

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