Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 177
________________ कारुण्य भावना १५. करुणा : रूपान्तरण की प्रक्रिया भगवान् महावीर की साधना का द्वितीय वर्ष। भगवान् अपने जीवन में साधना के विविध प्रयोग कर रहे थे। कभी अहिंसा का प्रयोग तो कभी मैत्री का। कभी अभय का तो कभी करुणा का। प्रयोगों की इन विविध भूमिकाओं का स्पर्श करते हुए भगवान् ग्रामानुग्राम विहरण कर रहे थे। एक बार वे दक्षिण वाचाला से उत्तर वाचाला की ओर जा रहे थे। इसके लिए उन्होंने कनकखल आश्रम के भीतर से जाने वाला मार्ग चुना। वे कुछ ही दूर बढ़े थे कि ग्वालों ने उन्हें रोका और कहा–भन्ते! आप इधर से न जाएं। यह मार्ग निरापद नहीं है, खतरों से भरा हुआ है। इस मार्ग में चंडकौशिक नाम का सर्प रहता है। वह दृष्टिविष है। जो कोई व्यक्ति उसकी आंख के सामने आ जाता है, वह भस्म हो जाता है। इसी कारण कुछेक वर्षों से यह मार्ग यातायात के लिए अवरुद्ध है, निर्जन है। आप हमारी बात माने और वापिस मुड़ जाएं। भगवान् ग्वालों की बात सुनकर पुलकित हो उठे। अनायास ही उनके सामने एक अलभ्य अवसर आ गया। स्वयं के द्वारा स्वयं की कसौटी करने का एक महान् प्रयोग था। वे अपने सशक्त प्रयोग से उस अज्ञानी जीव को भी प्रतिबोध देना चाहते थे। भीतर ही भीतर उनका मानस साधना के स्वर में बोल उठा-'मूढ़ आत्मा जिसके प्रति विश्वस्त है, उससे अधिक दूसरा कोई भय का स्थान नहीं है। वह जिससे भयभीत है, उससे अधिक दूसरा कोई अभय का स्थान नहीं हैं।' __ भगवान् के चरण उन सबकी उपेक्षा करते हुए आगे बढ़ गए। भगवान् आगे बढ़ते जा रहे थे और पीछे ग्वाले आश्चर्य की निगाहों से देख रहे थे कि कैसा निर्भीक पुरुष है! महावीर का आज का ध्यानस्थल देवालय का मंडप था तो विषधर

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