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अनुराग : विराग
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दिया? धिक्कार है मेरी इस कामुकता को, चित्तवृत्ति को । क्या मैं इस मनुष्यजन्म को रूप के अर्घ्य में ही समाप्त कर दूंगा ? नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। कुमार विचारों की शृंखला में अन्तर्मुखी होता चला जा रहा था । कर्मग्रन्थियों को कच्चे धागे की भांति तोड़ रहा था। एक-एक कर उसके ज्ञान के आवरण हटते गए और वह केवलज्ञान की भूमिका तक पहुंच गया, अनुराग के सिंहासन पर विराग जम गया। अब कुमार आत्मा में अवस्थित हो चुका था। थोड़ी देर बाद वह नीचे उतरा, उसने नवोद्भूत ज्ञान को प्रकट किया। कुमार की उस अध्यात्मवाणी से महाराज को अपनी दुर्भावनाओं पर अनुताप हुआ । नृत्य का रंगमंच अध्यात्म-धारा में बदल गया। जनसमूह आकण्ठ उस अध्यात्मधारा में निमज्जन कर रहा था और अनुभव कर रहा था - अनुराग से विराग का आलोक ।