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अनुराग : विराग
१४३ राह ली। रात काफी व्यतीत हो चुकी थी। इलायची कुमार सीधा अपने शयनकक्ष में आया और वेश परिवर्तन किए बिना ही शय्या पर लेट गया। पर निद्रा कहां? मानसिक उद्वेलन और देखा हुआ नृत्यदृश्य बार-बार प्रत्यक्ष हो रहा था। यौवन की चंचल ऊर्मियां भीतर ही भीतर तरंगित हो रही थीं। उसने वह रात करवटों और स्वप्नों में ही बिताई।
प्रभात का दूसरा दिन। अन्तर्मानस में वही उद्वेलन और वही दृश्य। अनमना, उदास और गमगीन चेहरा। न कार्य में रस और न खाने-पीने में रस। वदन पर मायूसी परिलक्षित हो रही थी। सभी कारण किसी सद्यःजनित दुःखद घटना का आभास करा रहे थे। तीसरा और चौथा दिन भी उसी प्रकार बीत गया। कुमार उलझन में पड़ा हुआ था। उसने सोचा बिना कुछ कहे ऐसा कब तक चलता रहेगा। अन्ततः कुछ उपाय तो खोजना ही होगा। उसने साहस बटोरा और एक दिन अवसर देखकर पिता के पास पहुंच गया। अपनी आन्तरिक कामना को प्रकट करते हुए बोला-पिताश्री! जीवन के आनन्द के लिए एक जीवन-साथी चाहिए, एकाकी जीवन कोई जीवन नहीं होता। किसी के साथ रहने और किसी के साथ जीने में ही मेरा वास्तविक सुख है, फिर उसके चुनाव में भी मेरी स्वतन्त्रता.....। वाणी में कुछ संकोच था, किन्तु कथन अपने आपमें स्पष्ट था।
पिता ने कभी सोचा नहीं था कि मेरा पुत्र भी ऐसा सोच सकता है। परानुशासन से निरपेक्ष स्वतंत्रता की कल्पना कैसे संभव हो सकती थी? पुत्र का कथन पिता पर जले घाव पर नमक का काम कर रहा था। उसने पुत्र से स्पष्ट कहा-'पुत्र! यह सुख-वैभव और अपार सम्पदा सब कुछ तेरे चरणों में लुठने को तैयार है, पर इस बात को कभी मत भूलना कि इस घर में उच्च कुल की कुलीन कन्या ही शोभित होगी। सर्वप्रथम हमें अपनी कुलपरम्पराओं का ध्यान रखना होगा, उसके बाद कुछ और। उसमें तुम्हारी स्वतन्त्रता नहीं चल सकेगी।'
'पिताश्री! जो मेरी बन चुकी है, जिसको मैं अपना सर्वस्व समर्पित कर चुका हं वह नट-कन्या ही मेरी दृष्टि में सर्वथा उपयुक्त है। वही इस धरती की अनुत्तर सुन्दरी है। मैं उसे अपनी ओर से वरण कर चुका हूं। अब आप मेरे इस निर्वाचन में अपनी सहर्ष अनुमति दें और मेरी भावनाओं का मूल्यांकन करें'–पुत्र ने अपनी बात रखते हुए कहा।
'पुत्र! अभी तुम्हारे में तारुण्य की अंगड़ाई है। तुम रूप और यौवन में