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दृढ़धर्मी अर्हन्नक घुमाने लगा। कुछेक यात्री इस भयावह दृश्य के कारण मूर्च्छित हो गए और कुछेक भय से कांपते हुए करुण क्रन्दन करने लगे। आज उनके प्रति सहानुभूति करने वाला और करुण विलाप को सुनने वाला कोई नहीं था। उनकी चीत्कार बाहरी बातावरण में अर्थशून्य और अकिंचित्कर-सी लग रही थी। कुमार अर्हन्नक अभी भी निश्चल और भयमुक्त स्थिति में था। बाहरी वातावरण का उस पर किंचित् भी प्रभाव नहीं था। उसकी दृढ़धर्मिता और मनोबल के सामने उस दैत्य को भी अन्त में पराजित होना पड़ा। उपसर्ग को उपशान्त जानकर अर्हन्नक ने ध्यान को पूरा किया। दैत्य ने जहाज को समुद्र में अवस्थित कर स्वयं को प्रकट करता हुआ बोला-मैंने तेरा जैसा परिचय सुना था तू उसी के अनुरूप है और तू अपनी परीक्षा में सफल हुआ है। धन्य है तेरे धर्म को और धन्य है तेरी दृढ़धर्मिता को। सारे पोतवणिक् स्वयं को सकुशल जानकर कुमार अर्हन्नक की श्लाघा करते हुए गाने लगे–'धर्म से बड़ा न कोई और।'