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शान्तसुधारस
प्रायश्चित्त उन्हीं लोगों के बीच रहकर करना चाहिए। वे लोग मुझे देखकर बदला लेंगे। वहां मुझे समता से उन सब कष्टों को सहन करने का अवसर मिलेगा।
ऐसा सोचकर निर्वेदरस में निमग्न दृढ़प्रहारी नगर की ओर बढ़ चला। नगर से बाहर आने-जाने के चार मुख्यद्वार थे। महादस्यु पूर्वदिशाभिमुख द्वार के समीप ध्यानस्थ होकर खड़ा हो गया। उस दिशा से आने-जाने वाले लोग एकाएक उस खूखार डाकू को देखते और प्रतिशोध की भावना से उस पर उबल पड़ते। कोई कहता यह दुष्ट ही मेरे पिता का हत्यारा है तो कोई कहता इसने ही मेरा सर्वस्व लूटा है। कोई उस पर भाई का खून करने का आरोप लगाता तो कोई उसे ढोंगी साधु कहकर अपमान करता। कोई उसे सुहाग लूटने वाला बताता तो कोई आते-जाते उस पर पत्थर फेंक देता। कोई हाथ और लाठी से उस पर प्रहार करता तो कोई दो-चार गालियां सुनाकर निकल जाता। दृढप्रहारी उन सब यातनाओं को समतापूर्वक सहन करता हुआ अपने दुष्कृत्यों को विफल कर रहा था और मन ही मन सोच रहा था कि मैंने जिन दुष्कर्मों का संचय किया है उन्हें तो एक दिन भोगना ही होगा। उनको बिना भोगे छुटकारा ही कहां है? कर्म मेरे लिए विजातीय पदार्थ हैं, मेरी पवित्रता को आच्छादित करने वाले हैं। उनको दर किए बिना आत्मा की मलिनता किस प्रकार दूर होगी? मैं किस प्रकार शुद्ध चैतन्य को उपलब्ध हंगा? न जाने मेरे पर कितने दुष्कृत्यों का ऋण है? यह अच्छा अवसर आया है कि मैं अपने आप उऋण हो रहा हूं और अपने किए हुए का ऋण चुका रहा हूं। उसके सामने एक ही लक्ष्य था कि मुझे अपने कृत का प्रायश्चित्त करना है। वह डाका डालने और हिंसा करने में जितना पराक्रमी था, उतना ही शूरवीर था अपने ऋण से मुक्त होने में। लोगों द्वारा अवमानना, अवहेलना, भर्त्सना, ताड़ना आदि देने पर भी कभी उसने अपने समत्व को खंडित नहीं किया। छह महीनों तक उसने घोर कष्टों को सहा। पश्चिम उत्तर
और दक्षिण दिशा में स्थित सभी द्वारों पर उसने ध्यानावस्थित होकर इसी प्रयोग को किया। अन्त में धीरे-धीरे लोगों का क्रोध उपशान्त हुआ। वे वस्तुस्थिति को जानने लगे। दृढ़प्रहारी का बदला हुआ अन्तःकरण देखकर लोगों का भी अन्तःकरण बदला। अब वे उसे महादस्यु से महामुनि के रूप में देखने लगे और उनकी सहनशीलता और समत्व के प्रति झुकने लगे। इस प्रकार वीतरागता की साधना करता हुआ महादस्यु एक दिन वीतराग बन गया और सब कर्मों को क्षीण कर सिद्ध-बुद्ध और मुक्त बन गया।