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निर्जरा भावना
९. कृत का प्रायश्चित्त
सान्ध्य की गोधूली वेला । अंशुमाली अस्ताचल को जा चुका था। निशा की तमिस्रा शनैः शनैः आगे बढ़ रही थी । गगन - मंडली पर एकछत्र साम्राज्य करते हुए नन्हे-नन्हे तारे मानो सूर्य की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर टिममिटमा रहे थे। कुमुदिनीपति अपनी शैशवास्था में ही विद्यमान था।
सहसा किसी ने बाहर से दरवाजा खटखटाया। भीतर से आवाज आई, कौन है ? अपरिचित स्वर में प्रत्युत्तर मिला- 'मैं एक पथिक हूं, रात बसेरा करना चाहता हूं।' ब्राह्मणदम्पती का सुकोमल अन्तःकरण आतिथ्यसत्कार के लिए उमड़ पड़ा। एकाएक घर का कपाट खुला और उस अपरिचित व्यक्ति ने घर में प्रवेश किया। चेहरे से बिल्कुल अज्ञात और अपरिचित होने पर भी वह अपने सुपरिचित नाम से न जाने कितने व्यक्तियों से परिचित था । उसकी क्रूरता की कहानी लोगों की जुबानी थी। वह अपने नाममात्र से ही लोगों को आतंकित और रोमांचित करने वाला था। अपने द्वारा किए गए काले कारनामों से ही वह देश का एक महान् और खूंखार डाकू बन गया। उसकी तलवार हमेशा शोणित से सनी रहती थी। किसी के प्राणों का व्यपघात करना उसके लिए सहज और सामान्य कार्य था। वह राहगीरों को लूटने, किसी के यहां डाका डालने और सेंध लगाने में तनिक भी संकोच नहीं करता था। दूसरों की आंखों में धूल झोंकने में जितना प्रवीण तो भागने में उतना ही निपुण। लज्जा, दया और करुणा तो मानो कभी के ही उसके अन्तःकरण से निकल चुके थे। वह हृदयहीन आततायी किसी पर दृढ़ प्रहार करने में कभी नहीं चूकता था और न ही उसका प्रहार कभी खाली जाता था, इसलिए अपनी इस दक्षता के कारण वह लोगों में 'दृढप्रहारी' के नाम से विश्रुत हो गया। यद्यपि वह जन्मना ब्राह्मण था, किन्तु अपनी कुसंगति के कारण डाकू बन गया। उसी के कारण आज वह