Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 153
________________ कृत का प्रायश्चित्त १३१ दर-दर की खाक छान रहा था। उसका जीवन सातों ही व्यसनों में धुत था। उन दुर्गुणों ने ही सारे परिवार तथा समाज को संक्षुब्ध और उत्पीड़ित किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि उसे एक दिन समाज और परिवार से तिरस्कृत होकर अलग होना पड़ा और वह घूमता-फिरता हुआ दस्युगिरोह में जा मिला। पल्लीपति ने उसके अद्भुत शौर्य-पराक्रम और साहसिक कार्यों को देखकर एक दिन उसे समस्त गिरोह का नेता बना दिया। आज वह अपने साथियों के सहयोग से कुशस्थल ग्राम को लूटकर, प्रचुर सम्पदा का अपहरण कर देवशर्मा ब्राह्मण के घर विश्राम कर रहा था। जिसके विषय में न जाने कितनी किंवदन्तियां लोक में प्रचलित थीं, रोते हुए शिशुओं को जिसका नाम लेकर चुप कराया जाता था और जिसकी क्रूरता ब्राह्मण की जीभ पर नाच रही थी और आज वही दस्युसम्राट् उसी घर में ठहरा हुआ आतिथ्य-सत्कार स्वीकार कर रहा था। विप्रवर देवशर्मा ने कभी सोचा ही नहीं कि ऐसी असंगति भी जीवन में आ सकती है। विधि के विधान में न जाने कितने रंग होते हैं, उनको जानना-पहचानना कभीकभी बुद्धि से भी परे होता है। इस अपरिचय और अनभिज्ञता के कारण ही कभी-कभार जीवन में अकल्पित और अतर्कित अनर्थ घटित हो जाते हैं। वह विप्रवर आज उस अपरिचित को अपने घर में स्थान देकर जानेअनजाने अपने ही हाथों विषधर को पाल रहा था और अनायास ही मौत को बुला रहा था। रात्रि की सुखदवेला व्यतीत हुई। प्रभात का उजाला नवजागरण का संदेश देता हुआ प्रसृत हुआ। ब्राह्मण ने आज प्रातराश के लिए अपने घर में खीर बनवाई थी। उसमें वह अपरिचित व्यक्ति भी सादर आमंत्रित था। वह स्वादिष्ट खीर विशेषकर घर के बच्चों के लिए रुचिकर और मनोज्ञ तो थी ही, किन्तु उस अनभिज्ञ पुरुष के लिए भी कम मनोज्ञ और रुचिकर नहीं थी। लम्बे समय के पश्चात् उसे ऐसा भोजन खाने और देखने का अवसर मिल रहा था। बच्चे उस प्रातराश के लिए जितने आतुर थे उतना ही आतुर था वह दस्युसम्राट्। वह मन ही मन सोच रहा था कि कब मुझे वह खीर मिले और कब मैं यहां से विदा लूं। एक ओर उसे राजपुरुषों द्वारा पकड़े जाने का मन में भय व्याप्त था तो दूसरी ओर रसलोलुपता के कारण वह गृद्ध बना हुआ था। दृढ़प्रहारी अपने उतावलेपन को रोक नहीं सका और सहसा रसोईघर में जाकर खीर के बर्तन के पास बैठ गया। उसका इस प्रकार अचानक आना और बैठना ब्राह्मणी को शिष्टाचार के नाते अच्छा नहीं लगा। कोई भी सभ्य और शिष्ट व्यक्ति ऐसा कर नहीं सकता, किन्तु दृढ़प्रहारी इस मामले में बिल्कुल शून्य था। जिसका

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