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सुख है एकाकीपन में
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हाथ में रखकर शेष सभी चूड़ियों को उतार दिया है, जिससे एक पंथ दो काज हो सके, चन्दन भी घिसा जा सके और शब्द भी न हो। इससे महाराज को भी कोई कष्ट न हो। एक चूड़ी का शब्द नहीं होता। दो होने पर ही शब्द होता है।'
इस एक वाक्यश्रवण से ही महाराज कुछ गंभीर और चिन्तन की मुद्रा में उतर गए। उनका अन्तःकरण इस तरंग से आन्दोलित हो उठा। भीतर-ही-भीतर अनावृत रहस्य उद्घाटित होने लगे। महाराज ने स्वयं की समस्या का समाधान स्वयं के द्वारा पा लिया। उनकी अबूझ पहेली अनायास सुलझ गई। उन्होंने अब उस सत्य का साक्षात्कार कर लिया था, जहां जाने पर कोरा चैतन्य विद्यमान रहता है और शेष सभी निःशेष हो जाते हैं। उनका अन्तर्मानस बोल उठा-अरे! यह द्वन्द्व ही तो सारे कष्टों की जड़ है। अकेलेपन में न कोई कष्ट है और न कोई संघर्ष | यह वेदना और कष्ट शरीर को है, मैं चैतन्यवान् हूं, एकाकी हूं।
इस प्रकार चिन्तन करते-करते नमि राजर्षि एकत्व अनुप्रेक्षा से अनुभावित हो गए। उन्होंने शरीर और चैतन्य का स्पष्ट बोध कर लिया। उन्हें वह आलोक मिल गया जिसे पाकर वे चिन्मय बनना चाहते थे। उन्हें वह पथ मिल गया जिसे पाकर उनके चरण मंजिल तक पहुंचना चाहते थे। मन का संकल्प दृढ़ हुआ। धीरे-धीरे रोग उपशान्त होता चला गया। नमि राजा मंजिल की खोज में निकल पड़े। विशाल राज्य, प्रचुर - वैभव, महारानियों का क्रन्दन और पुत्र-पौत्र आदि का स्नेह उन्हें अपने बन्धन में आबद्ध नहीं कर सका। वे एकान्तवासी बन गए, आत्मसाधना में लीन हो गए । अध्यात्म की गहराइयों में डुबकियां लेते हुए एकत्व अनुप्रेक्षा में समरस बन गए। कभी देवता उनकी परीक्षा करते तो कभी पथ से गुजरने वाले पथिक विविध प्रकार के प्रलोभन देते। कोई उन्हें सम्बोधित कर कहता - मुने! देखो, तुम्हारी आंखों के सामने मिथिला जल रही है। बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं गिर रही हैं । अन्तःपुर में रानियां क्रन्दन कर रही हैं। तुम एक बार आंख उठाकर देखो तो सही । तुम्हारे देखने मात्र से ही ये सब उपद्रव शान्त हो जाएंगे।
नमि राजर्षि अपने आपमें इतने अधिक तल्लीन थे कि उन्हें कोई भी प्रतिक्रिया प्रभावित नहीं कर सकती थी। वे ध्यान - कवच में सुरक्षित थे, अपने आपमें एकाकी थे। उन्हें न तो कोई मिथिला जलने से प्रयोजन था और न कोई अन्तःपुर की रानियों से ही सम्बन्ध था। चैतन्यधारा में प्रवाहित होते हुए वे अनुभव कर रहे थे - 'कैसा सुख सुन्दर अन्दर है, भरा एकाकीपन में।'