________________
भेदविज्ञान
११९
याद हुआ, किन्तु एक-दो दिन के बाद वह पुनः उसे भूल गया। पाठ भूलने का दुःख तो था ही, पर स्मृति पर बार-बार जोर देने पर भी याद नहीं आ रहा था। उसने बहुत प्रयत्न किया, अन्ततः वह अभिभूत हो गया।
एक दिन सीलंगाचार्य विहार कर किसी गांव में जा रहे थे। वह शिष्य भी उनके साथ था। मार्ग में एक खेत आया, जहां किसान माष को तुष से अलग कर रहा था। उसने किसान से पूछा- क्या कर रहे हो? किसान बोला- माष को तुष से अलग कर रहा हूं। यह सुनते ही शिष्य चौंका और तत्काल घटना का निमित्त पाकर उसका स्मृति - प्रकोष्ठ जाग उठा। वह मन ही मन सोचने लगा-अरे! जिस पाठ को गुरुजी ने मुझे पढ़ाया था वह पाठ तो 'मा तुष' 'मा रुष' है। न जाने कितने दिनों तक पाठ को पुनः याद करने का प्रयत्न किया आखिर आज वह मेरे स्मृतिपटल पर आ ही गया। उसे अपने आपमें अनुताप भी था और प्रसन्नता भी । यद्यपि आचार्य द्वारा पढ़ाया जाने वाला और स्वयं के द्वारा समझा जाने वाला पाठ काफी भिन्न था, फिर भी उसने उसी पाठ को याद कर लिया। उसने सोचा- जिस प्रकार उड़द से छिलका अलग होता है, उसी प्रकार यह शरीर भी आत्मा से भिन्न है । मैं चैतन्यवान हूं। मुझे भेदविज्ञान का बोध कराने के लिए ही आचार्य ने इस वाक्य को रटाया है । शिष्य का चिन्तन ऊर्ध्वमुखी हुआ और वह अन्तर्जगत् में सत्य का अन्वेषण करने लगा । पराया पराया ही होता है, इस सत्योक्ति को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। अपने घर का अवलोकन वही कर सकता है, जिसने अपने से भिन्न को देखा है। जिसके पीछे संयोग जुड़ा हुआ है, ममता जुड़ी हुई है वह शरीर एक दिन सबका साथ छोड़ देगा, फिर मोहवश इस पौद्गलिक शरीर के प्रति इतनी अनुरक्ति ! इतनी अभिन्नता ! क्यों नहीं मैंने इस मूर्च्छा को तोड़ा? मेरी अल्पज्ञता और अज्ञान इसी कारण दुःख दे रहे हैं। शिष्य अपने आपमें अन्यत्व अनुप्रेक्षा करता हुआ शरीर और आत्मा को भिन्न देख रहा था। अनुप्रेक्षा करते-करते वह स्थूल से सूक्ष्म में प्रविष्ट हुआ और अन्यत्व के कारण उसने सूक्ष्मतम गहराइयों में जाकर आत्मा का साक्षात्कार कर लिया। अब वह केवलज्ञान, केवलदर्शन और आत्मिक सुखों की गंगोत्री में निमज्जन कर रहा था और अनुभव कर रहा था शरीर और आत्मा की भिन्नता को ।