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अशौच भावना
६. आत्मा की आराधना
चक्रवर्ती सनत्कुमार का भव्य राजप्रसाद । प्राची दिशा में अठखेलियां करने वाली नवोदित सूर्य की सुनहली किरणें। उनसे प्रभासित होता हुआ राजमहल रत्नजटित मूंगे की भांति चमक रहा था । मन्दिरों में घंटियां बज रही थीं। सभी दिशाएं अरुणिमा से लाल होती हुई मानो जनजीवन को प्रबुद्ध कर रही थीं। षट्खंड की समृद्धि जिनके मस्तक का छत्र थी, मनुष्यों के सुख जिनके चरणों के फूल बने हुए थे। देवताओं के विलास और रूपमाधुरी जिनके आंगन में क्रीड़ा करती थी और जीवन की समस्त रसिकताएं जहां तुच्छ-सी प्रतीत होती थीं, वे हस्तिनापुर के अधिपति सनत्कुमार कुछ क्षण पूर्व ही अपने शयन से उठकर राजप्रासाद के पीछे उपवन में टहल रहे थे। उनके अलसाए हुए नेत्र उद्यान के वृक्ष, पुष्प और लताओं का सौन्दर्य निहारते हुए प्रफुल्लित हो रहे थे। शस्त्रास्त्रों से सज्जित प्रहरी राजप्रासाद के मुख्य द्वार पर खड़े हुए अपने-अपने कार्य में संलग्न थे। वे मुख्य द्वार से आने-जाने वाले व्यक्तियों पर कड़ी निगरानी रख रहे थे।
लगभग एक घटिका पश्चात् महाराज भ्रमणकार्य से निवृत्त होकर राजप्रासाद के प्रांगण में प्रविष्ट हुए । महाप्रतिहारी ने सम्राट् को नमस्कार करते हुए निवेदन किया–महाराज ! विप्रद्वय आपका साक्षात्कार करना चाहते हैं, इच्छा हो तो उन्हें प्रविष्टि की अनुमति देकर कृतार्थ करें। स्वीकृति पाकर महाप्रतिहारी मुड़े और दोनों विप्रों को साथ लेकर सम्राट् के समक्ष उपस्थित हो गए। दोनों ने सम्राट् को देखा तो देखते ही रह गए। उन्होंने कभी कल्पना ही नहीं की थी कि देवों को अभिभूत करने वाला ऐसा सुरूपवान् मर्त्य भी मर्त्यलोक में मिल सकता है। सौधर्मेन्द्र ने जिस रूपलावण्य की प्रशंसा की थी वह वस्तुतः स्तुत्य, सत्यापित और प्रत्यक्षीभूत था । उसके अंग-अंग से लावण्यमधुरिमा टपक रही थी। वह रूपमाधुरी देवताओं के लिए भी स्पृहणीय,