________________
१२७
जे आसवा ते परिस्सवा प्रति ममकार उमड़ पड़ा। उन्होंने मन ही मन सोचा–अरे शत्रुओं का इतना दुस्साहस! क्या वे मेरी अनुपस्थिति का लाभ उठाना चाहते हैं? क्या उन्होंने इसी अवसर को श्रेष्ठ समझा? खैर! मैं अभी जाता हूं और एक-एक बार सबको जीतता हूं। इतना विचार करते ही राजर्षि ने मन की पांखों से एक उड़ान भरी
और पोतनपुर पहुंच गए। अपने पुत्र को संभाला और फिर उतर पड़े सेना से सुसज्जित होकर रणक्षेत्र में। चारों ओर मोर्चाबन्दी और घमासान युद्ध। दोनों ओर से वार-प्रतिवार हो रहे थे। प्रसन्नचन्द्र मन ही मन शत्रुसुभटों को धराशायी कर रहे थे।
इधर मुनि का भीषण कल्पनासंग्राम चल रहा था तो उधर महाराज श्रेणिक राजर्षि के विषय में भगवान् से कुछ पूछना चाहते थे। उनके मन में रहरहकर कुछेक जिज्ञासाएं उभर रही थीं। उन्होंने प्रवचन-समाप्ति के पश्चात् भगवान् को वन्दन करते हुए पूछा-प्रभो! आपके धर्म-अनुशासन में अनेक निर्ग्रन्थ हैं, किन्तु प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की अपनी अद्वितीय और उत्कृष्ट साधना देखने
को मिली। उनकी इस दुष्कर करनी को देखकर लगता है कि उन्होंने काफी ऊंचाई को प्राप्त कर लिया है। यदि वे इस समय आयुष्य को पूर्ण कर जाएं तो कहां उत्पन्न होंगे? __ 'प्रथम नरक में', भगवान् ने रहस्य को खोलते हुए कहा।
राजा श्रेणिक सहसा विस्मय में डूब गए। उनकी इतनी उत्कृष्ट साधना और फिर नरकगमन? किन्तु सर्वज्ञ के वचनों पर अविश्वास भी कैसे किया जा सकता था। एक ओर राजर्षि की प्रखर-साधना का चित्र प्रत्यक्ष था तो दूसरी ओर सर्वविद् के वचनों में गहन आस्था थी। बात कुछ अटपटी-सी लग रही थी। कुछ समय बीता। पुनः राजा श्रेणिक ने उसी प्रश्न को दोहराते हुए पूछा-भंते! यदि अभी उनका आयुष्य पूरा हो जाए तो वे किस गति में जाएंगे?
भगवान्-दूसरे नरक में।
उत्तर सुनते ही राजा सकपका गया। क्या ऐसे महातपस्वी भी दूसरे नरक में? बात कुछ असंगत-सी लग रही थी। एक ओर तपस्या की उत्कृष्टता तो दूसरी
ओर उनका अधःपतन। राजा के सामने दुविधा-सी उत्पन्न हो गई। वे बिना पूछे नहीं रहे सके और पुनः बोले-भगवन्! अब?
भगवान्–तीसरे नरक में। यह क्या? क्या मेरे प्रत्येक प्रश्न के साथ एक-एक नरक बढ़ता ही