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एकत्व भावना
४. सुख है एकाकीपन में
मिथिलावासियों के गुलाबी चेहरे आज मायूस-मायूस-से लग रहे थे। अन्तःपुर का आमोद-प्रमोद शोकसागर में विलीन हो चुका था। सामन्त, मंत्री, सभासद् और पौरजन सभी का अन्तःकरण अपने लोकप्रिय राजा की स्वस्थता के लिए चिन्तातुर बना हुआ था। नगर में कहीं महाधिपति के स्वास्थ्य की मंगल-कामनाएं की जा रही थीं तो कहीं शीघ्र स्वस्थता के लिए देवों की मनौतियां मनाई जा रही थीं। कहीं ईश्वर से मिथिलाधिपति की नीरोगता के लिए प्रार्थनाएं और कहीं यज्ञ-हवन और उपासनाएं की जा रही थीं। सर्वत्र एक ही चर्चा, एक ही वातावरण, एक ही चिन्ता और एक ही लगन–'महाराज स्वस्थ कैसे हों?'
महानरेश का शयनागार चिकित्साप्रवीण राजचिकित्सकों से भरा हुआ था। उनके लिए अपना भाग्य और पुरुषार्थ को अजमाने के लिए इससे बढ़कर अलभ्य और स्वर्णिम अवसर ही क्या हो सकता था? जिन्होंने कभी महाराज से क्षणभर भी मुलाकात नहीं की आज वे सम्राट के प्रीतिपात्र बनना चाहते थे
और जिन्होंने महाराज के स्वास्थ्य-परीक्षण का बार-बार अवसर प्राप्त किया आज वे उस असाध्य रोग की चिकित्सा कर अपने यश को द्विगुणित करना चाहते थे। परस्पर एक प्रकार की स्पर्धा और उत्साह अन्तःकरण में कार्य कर रहा था, किन्तु सबसे अधिक चिन्ता थी भूपति के स्वास्थ्य की। एक-एक कर राजवैद्य राजा के स्वास्थ्य का परीक्षण कर रहे थे और अपने बहुमूल्य परामर्श तथा औषधियों से महाराज की चिकित्सा कर रहे थे। आज महाराज के लिए सभी परामर्श और औषधियां अर्थ-शून्य और अकिंचित्कर सिद्ध हो रही थीं। व्याधि अपनी चरम सीमा तक पहुंच चुकी थी। दाह-ज्वर से आक्रान्त महीपति का सुकोमल शरीर सूखकर पाण्डुर और कृश हो गया था। अग्नि की