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शान्तसुधारस
भांति झुलसता हुआ सारा शरीर संताप और बेचैनी से अधीर और व्यग्र बना हुआ था। मुख की आभा में म्लानता और दीनता टपक रही थी । पल-पल और क्षण-क्षण भी महाराज को महीनों और वर्षों तुल्य अनुभव हो रहा था। अपने कर्मविपाक को भोगने के सिवाय उनके पास अन्य कोई उपाय नहीं था । एक कुशल अनुभवी वैद्य ने राजा की बेचैनी और जलन को कम करने के लिए चन्दन लगाने का अनुरोध किया । यह परामर्श महामात्य तथा तत्रस्थित सभी को उचित और रुचिकर लगा। महाराज के आदेश की प्रतीक्षा थी कि सारा अन्तःपुर चूड़ियों की खनखनाहट से प्रतिध्वनित हो उठा। सभी महारानियां अपने प्रियतम की सेवा के लिए पलकें बिछाती हुई तत्काल चन्दन घिसने में संलग्न हो गईं। एक ओर असाध्य रोग की भयंकर पीड़ा तो दूसरी ओर चन्दन घिसने से होने वाली सहस्र चूड़ियों की कर्णवेधक प्रतिध्वनि। महाराज उसे सहन नहीं कर सके। सारा शरीर अत्यधिक बेचैनी और व्याकुलता से कांप उठा। एक-एक ध्वनि तरंग मस्तिष्क में कौंध कर मानो हथौड़ों जैसी चोटों की प्रतीति करा रही थी । महाराज का धैर्य विचलित हो उठा । सहिष्णुता का सेतु टूट गया। वे अपने आपको संभाल नहीं सके और गरज उठे - कौन है यह कोलाहल करने वाला ? क्या उनको मेरा कुछ भी भान नहीं है? जाओ, शीघ्र जाओ, बन्द करो इस कोलाहल को। वरना....। बात कहते-कहते महीपति अधर में ही स्खलित हो गए ।
स्वामी के आदेश को पाते ही यथाशीघ्र अनुचर दौड़े और वहां पहुंचे जहां महारानियां चन्दन घिस रही थीं। महाराज की अत्यधिक कष्टानुभूति और आदेश से महारानियों को अवगत कराया। अपने पति की कष्टानुभूति सचमुच उनकी अपनी व्यथा थी । वेदना को सुनते ही उनके नेत्र सजल हो गए। अपनी सहानुभूति के साथ उन्होंने तत्काल सुहाग की एक-एक चूड़ी रखकर शेष सभी चूड़ियां उतार दीं और पुनः चन्दन घिसने लग गईं।
अन्तःपुर का कोलाहल बन्द हुआ। सर्वत्र नीरवता - सी परिव्याप्त हुई । इससे महीपति को कुछ सान्त्वना मिली, असहनीय पीड़ा से कुछ राहत का अनुभव हुआ। वे कुछ आश्वस्त और स्वस्थ हुए। उन्होंने आंखें खोलीं और जिज्ञासा के स्वरों में समीपस्थ परिचारकों से जानना चाहा - 'क्या चन्दन घिसना बन्द कर दिया है?' 'नहीं, महाराज' - परिचारकों ने उत्तर दिया ।
'तो फिर यह कोलाहल कैसे बन्द हुआ ?'
'आर्यवर! महारानियों ने एक उपाय किया है, सुहाग की एक-एक चूड़ी