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शान्तसुधारस अंगरक्षक के रूप में नियुक्त कर लिया। वे सभी युद्ध-कला में प्रवीण और कर्त्तव्यपरायण थे।
एक बार नृपति श्रेणिक वैशाली के अधिपति चेटक की पुत्री सुज्येष्ठा पर आसक्त हो गया। उसने येन-केन प्रकारेण उसका अपहरण करना चाहा। कुमार अभय ने एक गुप्त योजना बनाकर मायाजाल रचा और वह अपनी योजना में सफल भी हो गया। सम्राट् श्रेणिक योजना को क्रियान्वित कर पुनः राजगृह आ रहा था कि सहसा वैशाली के राजा ने पीछे से आक्रमण कर दिया। बत्तीस ही अंगरक्षकों ने उसके मार्ग को रोककर सामना किया। भयंकर युद्ध हुआ। राजा श्रेणिक सकुशल महलों में पहुंच गया, किन्तु बत्तीस ही कुमार उस युद्ध में काम आ गए।
एक ओर राजा श्रेणिक को सकुशल पहुंचने की प्रसन्नता थी तो दूसरी ओर अपने अंगरक्षकों के मारे जाने का शोक भी था।
सुलसा ने जब इस सारी घटना को सुना तो सहसा उसका मातृ-हृदय रो उठा। आंखों में आंसू और अन्तर् में वेदना होने पर भी उसकी मनःस्थिति समतारस से आप्लावित थी। मानस पर एक गहरा वज्राघात अवश्य हुआ, फिर भी उसने अपना संतुलन नहीं खोया। उसका चिरपालित मनोरथ, जो दैवयोग से पूरा हुआ था, वह भी खण्ड-खण्ड होकर बिखर गया। जो गोद कितनी प्रतीक्षा के बाद पूरित हुई वही पुनः रिक्त हो गई। किसने जाना था इस नियति के योग को? किसने समझा था इस क्रूरकाल के चक्र को? कुछ समय पूर्व जो फूल डाली पर खिले थे वे सब आज देखते-देखते ही कुम्हला गए। नागरथिक का भरा-भरा आंगन आज एक साथ ही खाली हो गया। बत्तीसबत्तीस पुत्रों का यौवन के प्रथम चरण में ही एक साथ चले जाना वस्तुतः एक दुःखद घटना थी। कहां तो मां की ममता और कहां यह हृदयद्रावक दृश्य। सुलसा ने इस सारी घटना को समता से सहा। घर में चारों ओर करुण क्रन्दन
और विलाप होने पर भी उसने घटना को घटना के रूप में ही जाना, किन्तु उसे भोगा नहीं। न पहले उसे सन्तानाभाव का कोई दुःख था, न ही उसकी प्राप्ति होने पर प्रसन्नता और न ही पुनः उनके चले जाने का कोई शोक। तीनों अवस्थाएं उसके लिए समान थीं। उसका आलंबनसूत्र था-'सब कुछ अनित्य है, सब कुछ अनित्य है।'