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शान्तसुधारस
परब्रह्मपरिणामनिदानं, स्फुटकेवलविज्ञानं रे!।
विरचय विनय! विवेचितगानं, शान्तसुधारसपानं रे!॥८॥ हे विनय! तू शान्तसुधारस का पान कर, जो परमब्रह्म (शुद्ध चैतन्यमय) की परिणति का हेतु है, जो स्पष्ट केवल (संवेदनरहित) ज्ञानमय है, जिसमें विवेचित-संगान यथार्थ और अयथार्थ ज्ञेय वस्तु का पृथक्करण है।