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१. एवं सद्भावनाभिः सुरभितहृदयाः संशयाऽतीतगीतो
न्नीतस्फीतात्मतत्त्वास्त्वरितमपसरन्मोहनिद्राममत्वाः । सत्त्वा गत्वाऽममत्वाऽतिशयमनुपमां चक्रिशक्राधिकानां, सौख्यानां मक्षु लक्ष्मीं परिचितविनयाः स्फारकीर्तिं श्रयन्ते ।।
प्रशस्तिश्लोकाः
इस प्रकार जिनका हृदय सद्भावनाओं से सुरभित है, जो संशय से अतीत, सुकीर्त्तित, समुन्नति प्राप्त और समृद्ध आत्मतत्त्व वाले हैं, जिन्होंने शीघ्र गति से मोहरूपी निद्रा और ममत्व को दूर किया है, जो निर्ममत्व की विशिष्टता प्राप्त कर चुके हैं, जो विनय के गुणों से परिचित हैं, वे मनुष्य चक्रवर्ती और इन्द्र से अधिक सुखों की अनुपम लक्ष्मी तथा विशालकीर्ति को शीघ्र प्राप्त होते हैं।
२. 'दुर्ध्यानप्रेतपीडा प्रभवति न मनाक् काचिदद्वन्द्वसौख्य
स्फातिः प्रीणाति चित्तं प्रसरति परितः सौख्यसौहित्यसिन्धुः । क्षीयन्ते रागरोषप्रभृतिरिपुभटाः सिद्धिसाम्राज्यलक्ष्मीः,
स्याद्वश्या यन्महिम्ना विनयशुचिधियो भावनास्ताः श्रयध्वम् ॥
विनय से पवित्र बुद्धिवाले हे प्राणियो ! तुम उन भावनाओं का आश्रय लो जिनकी महिमा से दुर्ध्यान (आर्त्तरौद्र ध्यान ) रूपी प्रेत की किंचित्मात्र कोई पीड़ा नहीं सताती, द्वन्द्वातीत सुख की समृद्धि चित्त को तृप्त करती है, सुख की तृप्ति का सिन्धु उसके चारों ओर व्याप्त होता है, राग-द्वेष आदि शत्रुसैनिक नष्ट हो जाते हैं और मोक्षसाम्राज्य की लक्ष्मी अधीन हो जाती है।
३.
श्रीहीरविजयसूरीश्वरशिष्यौ, सोदरावभूतां द्वौ । श्रीसोमविजयवाचक-वाचकवरकीर्तिविजयाख्यौ ।।
१- २. स्रग्धरा । ३. पथ्या ।