________________
परिशिष्ट-१
अनित्य भावना
१. सब कुछ अनित्य है
महाराज श्रेणिक का प्रीतिपात्र रथिक नाग आज उदास-उदास-सा लग रहा था। उसकी अन्तर्व्यथा भीतर ही भीतर घुटन उत्पन्न कर रही थी। उसके जीवन में न कोई राग था और न कोई सुख। जीवन की खुशियां पतझड़ बन चुकी थीं। आमोद-प्रमोद मानसिक संताप से काफूर हो चुका था। घर में सब कुछ होते हुए भी एक ही अभाव उसे बार-बार खटक रहा था। सूना-सूना घर आज उसे खाने दौड़ रहा था। भावी की चिन्ता निरन्तर सताए जा रही थी। न खाने में रस था, न पीने में। न पहनने में रस था, न अन्य किसी वस्तु में। सारा जीवन एक अभाव के कारण नीरस-सा अनुभव हो रहा था। न जाने सूने घर को भरने के लिए कितने कुलदेवताओं की मनौतियां मनाई गईं। मन्त्र-तन्त्र, जादू-टोनों को काम में लिया गया। मन्दिरों की फेरियां दी गईं। किन्तु वे सब प्रयत्न आज अर्थ-शून्य और निष्फल सिद्ध हो रहे थे। आखिर भवितव्यता को टाला भी कैसे जा सकता है? नाग रथिक आज कार्य से शीघ्र निवृत्त होकर अपने घर में किंकर्तव्यविमूढ़ बना बैठा था।
__ पत्नी सुलसा ने उसकी व्यथा को भांपते हुए पूछा-प्रियदेव! आजकल आपको क्या हो गया है? आप उदास नजर आ रहे हैं। खाना-पीना आपको सुहाता नहीं। मनोज्ञ पदार्थ रुचिकर लगते नहीं। और तो क्या? बात करना भी आपको पसन्द नहीं। आखिर कारण है क्या? क्या सम्राट् श्रेणिक ने आपको कुछ कह दिया है? क्या शरीर से आप रुग्ण हैं या कोई अन्य विपत्ति आपके सामने हैं, जिसके कारण आप अन्यमनस्क दिखाई दे रहे हैं।
प्रिये! मैं क्या बताऊं, तुमसे छिपा ही क्या है, फिर घाव पर नमक छिड़ककर मुझे दुःखी करना कौन-सी दक्षता है? तुम्हारी यह सूनी-सूनी गोद मेरे अन्तःकरण को कचोट रही है। यह सूना-सूना आंगन मुझे रुला रहा है। वे