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माध्यस्थ्य भावना
तू दूसरों की चिन्ता के वलय को छोड़, अपने अधिकार का चिन्तन कर। तुझे क्या, कोई मनुष्य कैर चुनता है और कोई आम।
योऽपि न सहते हितमुपदेशं, तदुपरि मा कुरु कोपं रे! निष्फलया कि परजनतप्त्या, कुरुषे निजसुखलोपं रे!॥३॥
जो व्यक्ति हितकर उपदेश को भी सहन नहीं करता, उस पर तू क्रोध मत कर। तू बिना मतलब दूसरे के विषय में चिन्ता कर अपने सुख का लोप क्यों कर
रहा है?
सूत्रमपास्य जडा भाषन्ते, केचन मतमुत्सूत्रं रे!।
किं कुर्मस्ते परिहतपयसो, यदि पीयन्ते मूत्रं रे!॥४॥
कुछ मूर्ख लोग आगम को छोड़कर आगम-विरोधी मत का निरूपण करते हैं। उनका हम क्या करें, यदि वे दूध को छोड़कर मूत्र पीते हैं।
पश्यसि किं न मनःपरिणामं, निजनिजगत्यनुसारं रे!।
येन जनेन यथा भवितव्यं, तद् भवता दुर्वारं रे!॥५॥ तू अपनी-अपनी गति (जन्मान्तर-स्थान की प्राप्ति) के अनुसार होने वाले मन के परिणाम को क्यों नहीं देखता? जिस मनुष्य को जैसा होना है उसे रोकना तेरे लिए शक्य नहीं है।
रमय हृदा हृदयंगमसमतां, संवृणु मायाजालं रे!।
वृथा वहसि पुद्गलपरवशतामायुः परिमितकालं रे!॥६॥
तू अन्तःकरण से हृदय को छूने वाली समता में रमण कर, मायाजाल का संवरण कर। तू व्यर्थ पुद्गल की परतंत्रता का भार ढो रहा है, जबकि तेरा आयुकाल सीमित है।
अनुपमतीर्थमिदं स्मर चेतन-मन्तःस्थितमभिरामं रे!। चिरंजीव! विशदपरिणामं, लभसे सुखमविरामं रे!।।७।।
हे आयुष्मन्! तू चेतनरूप इस अनुपम तीर्थ का स्मरण कर, जो तेरे भीतर में स्थित है और रमणीय है, जिससे तू विशद परिणाम वाले अविराम (अन्तहीन) सुख को प्राप्त हो सके।