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सोलहवां प्रकाश
माध्यस्थ्य भावना
१. 'श्रान्ता यस्मिन् विश्रमं संश्रयन्ते,
रुग्णाः प्रीतिं यत्समासाद्य सद्यः। लभ्यं रागद्वेषविद्वेषिरोधा
दौदासीन्यं सर्वदा तत्प्रियं नः॥ थके हुए मनुष्य जिसमें विश्राम पाते हैं और रुग्ण व्यक्ति जिसे पाकर तत्काल प्रीति का अनुभव करते हैं, वह औदासीन्य (माध्यस्थ्य भावना) हमें सदा प्रिय है, जो रागद्वेषरूपी शत्रुओं के निरोध से उपलब्ध होता है। २. 'लोके लोका भिन्नभिन्नस्वरूपाः,
भिन्नभिन्नैः कर्मभिर्मर्मभिद्भिः। रम्याऽरम्यैश्चेष्टितैः कस्य कस्य,
तद्विद्वद्भिः तुष्यते रुष्यते वा॥ इस लोक में भिन्न-भिन्न स्वरूपवाले लोग हैं। वे अपने मर्मभेदी भिन्नभिन्न कर्मों के द्वारा प्रेरित होकर रमणीय और अरमणीय चेष्टाएं कर रहे हैं, फिर विद्वान् आदमी किस-किस की चेष्टा से तुष्ट और रुष्ट होंगे। ३. मिथ्या शंसन् वीरतीर्थेश्वरेण,
रोदधं शेके न स्वशिष्यो "जमालिः। अन्यः को वा रोत्स्यते केन पापात्,
तस्मादौदासीन्यमेवात्मनीनम् ॥ मिथ्या प्ररूपणा करने वाले शिष्य जमालि को तीर्थंकर महावीर नहीं रोक १-३. शालिनी। ४. देखें-परिशिष्ट (२) में 'सांकेतिक कथाएं'। ५. आत्मने हितं-'भोगान्तात्मभ्यामीनः' (भिक्षु. ७/३/४०) इत्यनेन ईनः।