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मैत्री भावना
७५ तक स्थायी रहने वाला है? उसमें दूसरे के प्रति शत्रुबुद्धि रखकर तू क्यों खिन्न हो रहा है?
५. 'सर्वेऽप्यमी बन्धुतयाऽनुभूताः, सहस्रशोऽस्मिन् भवता भवाब्धौ।
जीवास्ततो बन्धव एव सर्वे, न कोऽपि ते शत्रुरिति प्रतीहि।
यह संसार एक समुद्र है। इसमें तूने इन सभी प्राणियों के साथ हजारों बार बन्धुता का अनुभव किया है, इसलिए वे सभी जीव तेरे बन्धु ही हैं, कोई भी तेरा शत्रु नहीं है, ऐसी प्रतीति कर। ६. 'सर्वे पितृभ्रातृपितृव्यमातृ-पुत्राङ्गजास्त्रीभगिनीस्नुषात्वम्।
जीवाः प्रपन्ना बहुशस्तदेतत्, कुटुम्बमेवेति परो न कश्चित्।।
सभी प्राणी अनेक बार तुम्हारे पिता, भाई, चाचा, माता, पुत्र, पुत्री, पत्नी, बहिन और पुत्रवधू बन चुके हैं, इसलिए यह जगत् तुम्हारा कुटुम्ब ही है, पराया कोई नहीं है। ७. एकेन्द्रियाद्या अपि हन्त! जीवाः, पञ्चेन्द्रियत्वाद्यधिगत्य सम्यक्।
बोधिं समाराध्य कदा लभन्ते, भूयो भवभ्रान्तिभियाविरामम्।।
एकेन्द्रिय आदि जीव भी पंचेन्द्रियत्व आदि (मनुष्यजन्म, सुकुलजन्म, आर्यक्षेत्र तथा धर्मश्रवण) को सम्यक्प से पाकर बोधिरत्न की समाराधना करते हुए बार-बार होने वाले भवभ्रमण के भय से कब विराम लेंगे?
८. या रागरोषादिरुजो जनानां, शाम्यन्तु वाक्कायमनोद्रुहस्ताः।
सर्वेऽप्युदासीनरसं रसन्तु, सर्वत्र सर्वे सुखिनो भवन्तु॥
मनुष्यों के वे राग-द्वेष आदि रोग शान्त हों, जो उनके शरीर, वाणी और मन को उपहत करते रहते हैं। सभी लोग उदासीन (माध्यस्थ्य) रस का पान करें तथा सभी सर्वत्र सुखी बनें।
गीतिका १३ : देशाखरागेण गीयते
विनय! विचिन्तय मित्रतां, त्रिजगति जनतासु।
कर्मविचित्रतया गति, विविधां गमितासु॥१॥ १-२. उपजाति। ३-४. इन्द्रवज्रा।