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शान्तसुधारस
कभी धार्मिक नहीं हो सकता, अहिंसक नहीं हो सकता। धार्मिक जीवन जीने के लिए आवश्यक है कि उसमें करुणा का विकास हो। अहिंसक बनने के लिए
आवश्यक है कि वह संवेदनशील बने। क्रूरता से आक्रान्त व्यक्ति अपने ही हाथों गढा खोद रहा है और स्वयं ही उसमें गिर रहा है, फिर उसे बचाने वाला कौन हो सकता है? जिस व्यक्ति ने करुणा का विकास कर लिया उसने अकषाय, सम्यग्दृष्टि और अप्रमाद का विकास कर लिया। करुणा के परमाणु जब आसपास में विकीर्ण होते हैं तब सारा वातावरण करुणा से आप्लावित हो जाता है और उसकी परिधि में जीने वाला व्यक्ति शान्ति का अनुभव करता है। क्रूरता का विसर्जन कर करुणारस से अपने आपको अनुप्राणित करने वाला मनुष्य ही सत्य की दिशा में प्रस्थान करता है और फिर वहां से प्रस्फुटित होता
० तादात्म्यभाव। ० जीवन जीने की कला। ० समत्व और मानसिक शान्ति का अनुभव।