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कारुण्य भावना
१. 'प्रथममशनपानप्राप्तिवांछाविहस्ता'
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स्तदनु वसनवेश्माऽलङ्कृतिव्यग्रचित्ताः ।
परिणयनमपत्याऽवाप्तिमिष्टेन्द्रियाऽर्थान्,
पन्द्रहवां प्रकाश
सततमभिलषन्तः स्वस्थतां क्वाऽश्नुवीरन् ?
से
पहली समस्या है कि मनुष्य भोजन-पानी को उपलब्ध करने की इच्छा व्याकुल है। दूसरी समस्या - वस्तु, घर और अलंकार की प्राप्ति के लिए चित्त व्यग्र बना हुआ है। तीसरी समस्या - विवाह, सन्तानप्राप्ति, मनोज्ञ इन्द्रियविषयों को निरन्तर पाने की अभिलाषा बनी हुई है। इस स्थिति में वह स्वास्थ्य को कहां उपलब्ध होता है?
२. 'उपायानां लक्षैः कथमपि समासाद्य विभवं,
भवाऽभ्यासात् तत्र ध्रुवमिति निबध्नाति हृदयम् । अथाऽकस्मादस्मिन् विकिरति रजः क्रूरहृदयो,
रिपुर्वा रोगो वा भयमुत जरा मृत्युरथवा ।।
लाखों उपायों से किसी प्रकार मनुष्य धन को प्राप्त करता है, फिर वह अनेक जन्मों के अभ्यास के कारण उसे ध्रुव मानकर उसमें हृदय को स्थापित कर देता है- आसक्ति के बन्धन से बंध जाता है। कभी अचानक क्रूरहृदय वाला शत्रु अथवा रोग, भय, जरा और मृत्यु उसमें धूल डाल देती है उसका नाश या वियोग कर देती है।
१. मालिनी। २. 'विहस्तव्याकुलौ व्यग्रे' (अभि. ३/३०)। ३. शिखरिणी ।