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शान्तसुधारस
३. स्पर्धन्ते केऽपि केचिद् दधति हृदि मिथो मत्सरं क्रोधदग्धाः,
युध्यन्ते केऽप्यरुद्धा धनयुवतिपशुक्षेत्रपद्रादिहेतोः। केचिल्लोभाल्लभन्ते विपदमनुपदं दूरदेशानटन्तः,
किं कुर्मः किं वदामो भृशमरतिशतैर्व्याकुलं विश्वमेतत्।। कुछ मनुष्य परस्पर स्पर्धा करते हैं, कुछ क्रोध से जले हुए परस्पर हृदय में मात्सर्य रखते हैं, कुछ उच्छंखल होकर धन, स्त्री, पशु, खेत, ग्राम, नगर
आदि के लिए युद्ध कर रहे हैं, कुछ लोभ के कारण दर देशों में घूमते हुए पग-पग पर विपदा को झेलते हैं। क्या करें और क्या कहें? यह जगत् सैकड़ों कष्टों से अत्यन्त व्याकुल बना हुआ है। ४. रेस्वयं खनन्तः स्वकरण गर्ता, मध्ये स्वयं तत्र तथा पतन्ति।
यथा ततो निष्क्रमणं तु दूरेऽधोऽधः प्रपाताद् विरमन्ति नैव।।
मनुष्य अपने हाथों से स्वयं गढा खोद रहा है और स्वयं ही उसमें वैसे गिर रहा है जिससे कि उससे निकलना तो दूर रहा, किन्तु और अधिक नीचे से नीचे गिरता जा रहा है, वह कहीं भी विराम नहीं देख रहा है। ५. प्रकल्प्य यन्नास्तिकतादिवादमेवं प्रमादं परिशीलयन्तः। मग्ना निगोदादिषु दोषदग्धाः दुरन्तदुःखानि हहा! सहन्ते।।
खेद है! मनुष्य नास्तिकता आदि वादों की प्रकल्पना कर और इसी प्रकार प्रमाद का आचरण करते हुए निगोद आदि में डूब जाते हैं। उन दोषों से दग्ध होकर वे अन्तहीन कष्टों को सहते हैं। ६. शृण्वन्ति ये नैव हितोपदेशं, न धर्मलेशं मनसा स्मरन्ति।
रुजः कथंकारमथाऽपनेयास्तेषामुपायस्त्वयमेक एव।। ___ जो मनुष्य हितोपदेश को सुनते ही नहीं और न धर्म के लेश का भी मन से स्पर्श करते हैं, उनके मानसिक और भावनात्मक रोग कैसे दर किए जा सकते हैं? जबकि उन रोगों को दूर करने का एकमात्र उपाय है-हितोपदेश का श्रवण और धर्म का आचरण।
१. स्रग्धरा। २. पद्र इति ग्रामः। ३-५. उपजाति।