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शान्तसुधारस
अनिरुद्धं मन एव जनानां, जनयति विविधातङ्कम्।
सपदि सुखानि तदेव विधत्ते, आत्माराममशङ्क रे!॥५॥ मनुष्यों का अनियन्त्रित मन ही अनेक आतंकों भय और भयंकर रोगों को उत्पन्न करता है। वही जब आत्माराम अपने आपमें रमण करने वाला होता है तो वह निस्संदेह तत्काल सुखों को देने वाला हो जाता है।
परिहरताश्रवविकथागौरव'-मदनमनादिवयस्यम्।
क्रियतां सांवरसाप्तपदीनं', ध्रुवमिदमेव रहस्यं रे!॥६॥
आस्रव, विकथा, गौरव और कामभावना ये अनादिकाल से तुम्हारे साथी बने हुए हैं। उनका तुम त्याग करो, संवर को मित्र बनाओ, यही शाश्वत रहस्य है।
सह्यत इह किं भवकान्तारे, गदनिकुरम्बमपारम्।
अनुसरताऽऽहितजगदुपकारं, जिनपतिमगदङ्कारं रे!॥७॥
इस संसार-अरण्य में तुम अपार व्याधि-समूह को कैसे सहन कर रहे हो? जिनेश्वर वैद्य का तुम अनुसरण करो, जो जगत् का कल्याण करने वाले
शृणुतैकं विनयोदितवचनं, नियताऽऽयतिहितरचनम्। रचयत' सुकृतसुखशतसंधानं, शान्तसुधारसपानं रे!॥८॥
तुम केवल विनय के द्वारा प्रतिपादित वचन को सुनो, जो निश्चित ही भविष्य में हितकारी है तथा सैकड़ों सुकृत और सुख का संधान करने वाले शान्तसुधारस का पान करो।
१. पांच प्रकार का आस्रव-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। चार प्रकार की विकथा-स्त्री, भत्त, देश और राज। तीन प्रकार का गौरव-ऋद्धि, रस और साता। २. 'सौहार्द साप्तपदीन...' (अभि. ३/३९५)। ३. जो धातुएं चुरादिगण की हैं वे भ्वादिगण की हैं, इसलिए यहां 'रचत' क्रियारूप लय की दृष्टि से उचित है।