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कारुण्य भावना
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७. 'परदःखप्रतीकारमेवं ध्यायन्ति ये हृदि।
लभन्ते निर्विकारं ते, सुखमायति सुन्दरम्॥
दसरों के दःखों का प्रतिकार करने के लिए जो लोग अन्तःकरण में इस प्रकार का चिन्तन करते हैं, वे निर्विकार (शाश्वत), भविष्य में कल्याणकारी सुख को प्राप्त करते हैं।
गीतिका १५ : रामकुलीरागेण गीयते
सुजना! भजत मुदा भगवन्तं, सुजना! भजत मुदा भगवन्तम्।
शरणागतजनमिह निष्कारणकरुणावन्तमवन्तं रे॥१॥
हे सज्जनो! तुम प्रसन्नता से भगवान् की सेवा करो, जो शरण में आए हुए मनुष्यों की रक्षा करने वाला और अपेक्षामुक्त होकर करुणावान् है।
क्षणमुपधाय मनः स्थिरतायां, पिबत जिनागमसारम्।
कापथघटनाविकृतविचारं त्यजत कृतान्तमसारं रे!॥२॥ तुम क्षणभर के लिए मन को स्थिरता में स्थापित कर जिनभगवान् द्वारा प्रतिपादित आगमसार का पान करो और कुपथ की ओर ले जाने वाली घटनाओं से विकृत विचार वाले सारहीन सिद्धान्तों को छोड़ो।
परिहरणीयो गुरुरविवेकी भ्रमयति यो मतिमन्दम्। सुगुरुवचः सकृदपि परिपीतं, प्रथयति परमानन्दं रे!॥३॥
जो मन्दबुद्धि वाले मनुष्यों को भटकाता है वह अविवेकी गुरु छोड़ने योग्य होता है। सुगुरु का एक बार भी एकाग्रता से सुना हुआ वचन परम आनन्द का विस्तार करता है।
कुमततमोभरमीलितनयनं, किमु पृच्छत पन्थानम्। दधिबुद्ध्या नर! जलमन्थन्यां, किमु निदधत मन्थानं रे!॥४॥
जिसके नेत्र कुमतरूपी अन्धकार से मुंदे हुए हैं उससे तुम क्या मार्ग पूछते हो? हे मनुष्य! पानी से भरी गगरी को तुम दही से भरी हुई मानकर क्यों उसमें मथनी रख रहे हो, घुमा रहे हो? १. अनुष्टुप्। २. 'आयतिस्तूत्तरः कालः' (अभि. २/७६)।