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६. 'जिह्वे! प्रह्वीभव त्वं सुकृतिसुचरितोच्चारणे सुप्रसन्ना,
भूयास्तामन्यकीर्त्तिश्रुतिरसिकतया मेऽद्य कर्णौ सुकर्णौ ।
वीक्ष्याऽन्यप्रौढलक्ष्मीं द्रुतमुपचिनुतं लोचने! रोचनत्वं, संसारेऽस्मिन्नसारे फलमिति भवतां जन्मनो मुख्यमेव ।।
हे जीभ ! तू पुण्यवान् पुरुषों के सच्चरित्र - उच्चारण में प्रसन्नता के साथ अनुरक्त बन । अब मेरे दोनों कान दूसरों की यशश्रुति के रसिक होकर अच्छे कान बनें। हे लोचन! तुम दूसरों की विशाल लक्ष्मी को देखकर शीघ्र प्रीतिमान् बनो । इस असार संसार में तुम सबके (जीभ, कान और लोचन) जन्म का यही मुख्य फल है।
७. प्रमोदमासाद्य गुणैः परेषां येषां मतिर्मज्जति साम्यसिन्धौ । देदीप्यते तेषु मनःप्रसादो, गुणास्तथैते विशदीभवन्ति ।।
दूसरों के गुणों के प्रति प्रमुदित होकर जिनकी बुद्धि समतासिन्धु में निमज्जन करती है उन मनुष्यों में मन की प्रसन्नता दीप्त होती है और उनमें वे गुण (जिन गुणों के प्रति वह प्रमोद भावना करता है) निर्मल हो जाते हैं - प्रकट हो जाते हैं।
गीतिका १४ : टोडीरागेण गीयते
शान्तसुधारस
विनय! विभावय गुणपरितोषं,
निजसुकृताप्तवरेषु परेषु।
परिहर दूरं मत्सरदोषं,
विनय ! विभावय गुणपरितोषम् ॥ १ ॥
हे विनय! तू गुणों के प्रति आनन्द का अनुभव कर । जिन्हें स्वयं के सुकृत का वर प्राप्त है उन दूसरों के प्रति मात्सर्य को मन से बाहर निकाल फेंक
१. स्रग्धरा। २. उपजाति। ३. टुमस्जोंज् - शुद्धौ शुद्ध्या स्नानं ब्रुडनं च लक्ष्यते ।
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