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चौदहवां प्रकाश
प्रमोद भावना
१. 'धन्यास्ते वीतरागाः क्षपकपथगतिक्षीणकर्मोपरागा
स्त्रैलोक्ये' गन्धनागाः सहजसमुदितज्ञानजाग्रद्विरागाः। अध्यारुह्यात्मशुद्ध्या सकलशशिकलानिर्मलध्यानधारा
___मारान्मुक्तेः प्रपन्नाः कृतसुकृतशतोपार्जितार्हन्त्य लक्ष्मीम्॥
धन्य हैं वे वीतराग, जिन्होंने क्षपकश्रेणी की गति में आरोहण कर कर्मों से होने वाले उपद्रवों को क्षीण कर दिया है, जो त्रिलोकी में गन्धहस्ती के समान हैं, जो सहज प्रकट होने वाले ज्ञान से विकासमान वैराग्य वाले हैं, जो आत्मशुद्धि से सम्पूर्ण चन्द्रकला की भांति निर्मलध्यानधारा का आरोहण कर तथा पूर्वकृत सैकड़ों सुकृतों के द्वारा उपार्जित आर्हत्-लक्ष्मी का वरण कर मुक्ति के समीप पहुंच गए हैं। २. “तेषां कर्मक्षयोत्थैरतनुगुणगणैर्निर्मलात्मस्वभावै
___ यं गायं पुनीमः स्तवनपरिणतैरष्टवर्णास्पदानि। धन्यां मन्ये रसज्ञां जगति भगवतस्स्तोत्रवाणीरसज्ञा
मज्ञां मन्ये तदन्यां वितथजनकथाकार्यमौखर्यमग्नाम्।। उन वीतराग के कर्मक्षय से उत्पन्न निर्मल आत्मस्वभाव वाले स्तुतिरूप में परिणत विपुल गुणसमूह के द्वारा गा-गा कर हम आठ वर्ण स्थानों को पवित्र कर रहे हैं। मैं उस रसना को धन्य मानता हूं, जो इस जगत् में भगवान् के स्तुतिवचन के रस का अनुभव करती है तथा उससे भिन्न रसना को जो तथ्यहीन जनकथा के कार्य की मुखरता में निमग्न है, अज्ञ-अधन्य मानता हूं। १. स्रग्धरा। २. अत्र स्वार्थे ट्यणप्रत्ययः-'चतुर्वर्णादिभ्यष्ट्यण' (भिक्षु. ७/४/९५)। ३. अर्हतः भावः कर्म वा इति विग्रहे 'अर्हतो नुम् च' (भिक्षु. ७/३/६२) इति सूत्रेण ट्यणप्रत्ययः नुमागमश्च। ४. स्रग्धरा। ५. उर, कण्ठ, शिर, जिह्वामूल, दन्त, नासिका, ओष्ठ और तालु-ये आठ वर्णस्थान हैं।