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निर्जरा भावना
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४. निकाचितानामपि कर्मणां यद्, गरीयसां भूधरदुर्द्धराणाम्।
विभेदने वज्रमिवातितीव्र, नमोस्तु तस्मै तपसेऽद्भुताय।।
उस अद्भुत तप को नमस्कार, जो गुरुतर तथा पर्वतों की भांति दुर्धर निकाचित' कर्मों को भी अतितीव्रता से वज्र की भांति तोड़ देता है। . ५. किमुच्यते सत्तपसः प्रभावः, कठोरकर्मार्जितकिल्विषोऽपि।
दृढप्रहारीव निहत्य पापं, यतोऽपवर्गं लभतेऽचिरेण।।
श्रेष्ठ तप के प्रभाव के विषय में क्या कहा जाए! जिसके प्रभाव से कठोर कर्मों को अर्जित करने वाला पापी भी दृढ़प्रहारी की भांति पापों को क्षीणकर शीघ्र मोक्ष पा लेता है।
६. "यथा सुवर्णस्य शुचि स्वरूपं, दीप्तः कृशानुः प्रकटीकरोति।
तथात्मनः कर्मरजो निहत्य, ज्योतिस्तपस्तद् विशदीकरोति।।
जैसे प्रज्वलित अग्नि सोने के निर्मल स्वरूप को प्रकट करती है वैसे ही तप आत्मा के कर्मरज को दूर कर उसकी ज्योति को निर्मल बना देता है। ७. 'बाह्येनाभ्यन्तरेण प्रथितबहुभिदा जीयते येन शत्रु
__श्रेणी बाह्यान्तरङ्गा भरतनृपतिव भावलब्धद्रढिम्ना। यस्मात् प्रादुर्भवेयुः प्रकटितविभवा लब्धयः सिद्धयश्च,
वन्दे स्वर्गाऽपवर्गाऽर्पणपटु सततं तत्तपो विश्ववन्द्यम्॥ जो बाह्य और अन्तरंगरूप में अनेक भेद (बारह भेद) वाला है, जिससे भरत चक्रवर्ती की भांति भावना से प्राप्त दृढ़ता के कारण बाह्य और अन्तरंग शत्रुश्रेणी जीती जाती है, जिससे प्रकटित वैभवशाली लब्धियां और सिद्धियां प्रादर्भूत होती हैं, उस स्वर्ग-मोक्ष दान में पटु, विश्ववन्द्य तप को मैं सतत वन्दना करता हूं। १. उपेन्द्रवज्रा। २. कर्मशास्त्रीय परम्परा के अनुसार यहां दो अभिमत हैं-एक अभिमत है कि निकाचित कर्मों का भेदन नहीं किया जा सकता तथा दूसरा अभिमत है कि निकाचित कर्मों का भी भेदन किया जा सकता है। ३-४. उपजाति। ५. स्रग्धरा। ६. देखें-परिशिष्ट (२) में 'सांकेतिक कथाएं'। ७. सिद्धियां आठ प्रकार की हैं-लघिमा, वशिता, ईशित्व, प्राकाम्य, महिमा, अणिमा, यत्रकामावसायित्व, प्राप्ति (अभि. २/११६)। लब्धियों के अट्ठाईस प्रकार के लिए देखें-औपपातिक २/२४।