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९.संकेतिका रसपरिहार, प्रतिसंलीनता और कायक्लेश ये तप के बाह्य अंग हैं। इनको बाह्य इसलिए कहा गया कि ये साधना के लिए पृष्ठभूमि तैयार करते हैं, शरीर को सर्दी-गर्मी आदि कष्टों को सहने के योग्य बनाते हैं। शेष छह भेद-प्रायश्चित्त, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, विनय, कायोत्सर्ग और शुभ ध्यान ये तप के आभ्यन्तर अंग हैं। ये छह भावशुद्धि के साधक तथा चंचलता को मिटाने का कारण बनते हैं, इसलिए इन्हें आन्तरिक तप कहा गया।
___ इन दोनों ही प्रकारों से शरीर के बाह्य और आन्तरिक मल विसर्जित होते हैं। उनसे प्रक्षालित और विशोधित होकर चेतना उसी प्रकार निर्मल बन जाती है जिस प्रकार अग्नि में तपा हुआ सोना।
तप की महिमा का अनुचिन्तन करता हुआ मनुष्य बार-बार इस सूत्र का आलम्बन ले-'नन्नत्थ निज्जरट्टयाए तवमहिद्वेज्जा' (दसवेआलियं, ९/४/सू. ५) -निर्जरा से अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप न करे।
निष्कामभाव से किए हुए तप का प्रभाव होता है० विशोधीकरण। ० चेतना का मूलरूप में प्रकटीकरण। ० आधि, व्याधि और उपाधि से हटकर समाधि में अवस्थिति।